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उत्तरार्तिके विंशोऽध्यायः २०.९

हे अग्निदेव ! आपका जिसके साथ मैत्री भाव जुड़ता है, वह यजमान उत्तम वीर सन्तानादि से युक्त, तेजस्वी

कर्मों से युक्त होकर आपके संरक्षण में जीवन संग्राम से पार होता है ॥१ ॥

१८२३. तब द्रप्सो नीलवान्वाश ऋत्विय इन्धानः सिष्णवा ददे ।

त्वं महीनामुषसामसि प्रियः क्षपो वस्तुषु राजसि ॥२॥

हे सोम सिचित अग्निदेव ! प्रवहमान, निकट रखने वाला, कामना योग्य, प्रकाशित तेजस्वी सोम आपके

निमित्त पराप्त किया जाता है । महान्‌ उषाओं के प्रिय रूप आप रात्रि में अधिक प्रकाशित होते है ॥२ ॥

१८२४. तमोषधीर्दधिरे गर्भमृत्वियं तमापो अग्नि जनयन्त मातरः ।

तमित्समानं वनिनश्च वीरुधोऽन्तर्वतीश्च सुवते च विश्वहा ॥३॥

ऋतु के अनुरूप उत्पन्न उन अग्निदेव (ऊर्जा) को ओषधियाँ गर्भ मे धारण करती हैं । जल घारायें माता की

तरह उसे पैदा करती है । वनस्पतिवाँ और औषधियाँ उसे गर्भ रूप में धारण करके प्रकट करती हैं ॥३ ॥

[यं प्रकृतिगत ऊर्जा चक्र का वर्णन है। ]

१८२५. अग्निरिन्द्राय पवते दिवि शुक्रो वि राजति । महिषीव वि जायते ॥४॥

अग्नि इन्द्रदेव के निमित्त प्रदीप्त होकर व्यापक आकाश में प्रकाशित होती है । उस अवस्था मे यह रानी

के तुल्य विशेष शोभायमान होती है ॥४ ॥

१८२६. यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति ।

यो जागार तमय सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥५॥

जो जागृत हैं उन्हीं से ऋचायें अपेक्षा रखती है । जागृत को ही सामगान का लाभ मिलता है । जागृत से ही

सोम कहता है कि “ मैं तुम्हारे मित्र भाव में ही रहता हूँ” ॥५ ॥

१८२७. अग्निर्जागार तमृचः कामयन्तेऽग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति ।

अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः ॥६ ॥

अग्नि जागृत रहती है, इसलिए बह ऋचाओं द्वारा चाही जाती है । अग्नि चैतन्य वान है अत: साम उसका

गान करते है । चैतन्य अग्नि से ही सोम कहता है” पै सदा आपके मित्र भाव में आश्रय स्थान प्राप्त करूँ” ॥६ ॥

१८२८. नमः सखिभ्यः पूर्वसदभ्यो नमः साकंनिषेभ्यः ।

युझे वाच॑ शतपदीम्‌ ॥७ ॥

(यज्ञारम्भ से पूर्व ही प्रतिष्ठित देवों को हमारा प्रणाम) यज्ञारम्भ से यज्ञ में स्थित देवों को हमारा प्रणाम ।

असंख्य ऋचायें स्तुति रूप से आपको प्राप्त हों ॥७ ॥

१८२९. युञ्जे वाचं शतपदीं गाये सहत्लवर्तनि । गायत्र त्रैष्ठंभ॑ जगत्‌ ॥८ ॥

असंख्य प्रकार से स्तुतयो को देवार्थ प्रयुक्त करते है । गायत्री, बरष्टुप्‌ ओर जगती नामक छन्दो से युक्त

सामों का सहलो प्रकार से गायन करते है ॥८ ॥

१८३०. गायत्रं ष्ट भं जगद्िश्वा रूपाणि सम्भृता ।

देवा ओकांसि चक्रिरे ॥९॥

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