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श्रीविष्णुपुराणा
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वयमप्येव॑पुत्रादिभिस्सह ललितं रंस्यामहे | हम भी इसी प्रकार अपने पुत्रादिके साथ अति
इत्येवमभिकाङ्घन स॒ तस्मादन्तर्जलाब्निष्क्रम्य | ललित क्रीडाएँ करेगे ।' ऐसी अभिलत्रपा कते हुए
सन्तानाय निवेष्ठधकाम: कन्यार्थं मान्धातारं
राजानमगच्छत् ॥ ७५ ॥
ये उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थं
गहस्थाश्रममें प्रवेश कसनेकी कामनासे कन्या ग्रहण
आगपनश्रवणसमनन्तरं चोत्थाय तेन राज्ञा | करनेके लिये राजा मान्धाताके पास माये ॥७५॥
सम्यगर्ध्यादिना सम्पूजितः कृतासनपरिग्रहः
सौभरिरुवाच राजानम् ॥ ७६ ॥
कि त्वर्थिनामर्धितदानदीक्षा
कृतक्रतै इत्ताष्यमिदं कुलं ते ॥ ७८
स्तार्धसंख्यास्तव सन्ति कन्या-
स्तासां ममैकां नृपते प्रयच्छ ।
यदार्थनाभङ्गभयाद्विभेमि
तस्मादहं राजवरातिदुःखात् ॥ ७९
श्रीपतश्र उवाच
इति ऋषिवचनमाकरण्य स राजा जराजर्जरित-
कृतार्थता नो यदि कि न लब्धा ॥ ८१
आओीपरादार उक
सुनिक्र्का आगमन सुन राजने उठकर
अर्ध्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया।
तदनन्तर सौभरि मुनिन आसन गहण करके गजासे
कहा-- ॥ ७६ ॥
सौभरिजी बोले--हे राजन् ! मै कन्या-परिग्रहका
अभिल्मपी हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय
भर्गं मते करो । ककुत्स्थवद्यमें कार्यवक्ष आया हुआ
कोई भी प्रार्थी पुरुष कभी खाली हाथ नहीं सरता
॥ ७७ ॥ हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक
राजालोग हैं ओर उनके भी कन्या उत्पन्न हुई हैं; किंतु
याचक्तरैको मांग हुई वस्तु दान देनेके नियममें दुदभ्रतिज्ञ
तो यह तुम्हारा षरोखनीय कुल ही है॥७८॥ हे
रजन् ! तुम्हारे पचास कन्या हैं, उनमेंसे तुम मुझे
केवल एक हो दे दो। हे नृपश्रेष्ठ ! मै इस समय
प्रार्थाभड्रकी आराङ्कसे उत्पन्न अतिशय - दुःखसे
भयभीत हो रहा हूँ॥ ७९ ॥
श्रीपरादारजी बोछे--ऋषिके ऐसे वचन सुनकर
राजा उनके जराजीर्ण देहको देखकर शापके भयसे
अस्वीकार करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुर
नीचेको मुख करके मन-ही-मन चित्ता करने
लगे ॥ ८० ॥
सौभरिजी खोले--हे नरेन्द्र तुम चिन्तित क्यों
होते हो ? मैंने इसमें कोई असहा आत तो कही नहीं
है; जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनो ही है उससे
ही यदि हम कृतार्थं हो स्के तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर
सकते हो ?॥ ८१ ॥
श्रीपराशरजी बोले--तब भगवान् सौभरिके
अथ तस्य भगवतइशापभीतस्सप्रश्नयस्तमुवा- | शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्नतापूर्वक उनसे
चासौ राजा ॥ ८२ ॥
| कडा ॥ ८२ ॥