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श्रीविष्णुपुराणा

[ # २

वयमप्येव॑पुत्रादिभिस्सह ललितं रंस्यामहे | हम भी इसी प्रकार अपने पुत्रादिके साथ अति

इत्येवमभिकाङ्घन स॒ तस्मादन्तर्जलाब्निष्क्रम्य | ललित क्रीडाएँ करेगे ।' ऐसी अभिलत्रपा कते हुए

सन्तानाय निवेष्ठधकाम: कन्यार्थं मान्धातारं

राजानमगच्छत्‌ ॥ ७५ ॥

ये उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थं

गहस्थाश्रममें प्रवेश कसनेकी कामनासे कन्या ग्रहण

आगपनश्रवणसमनन्तरं चोत्थाय तेन राज्ञा | करनेके लिये राजा मान्धाताके पास माये ॥७५॥

सम्यगर्ध्यादिना सम्पूजितः कृतासनपरिग्रहः

सौभरिरुवाच राजानम्‌ ॥ ७६ ॥

कि त्वर्थिनामर्धितदानदीक्षा

कृतक्रतै इत्ताष्यमिदं कुलं ते ॥ ७८

स्तार्धसंख्यास्तव सन्ति कन्या-

स्तासां ममैकां नृपते प्रयच्छ ।

यदार्थनाभङ्गभयाद्विभेमि

तस्मादहं राजवरातिदुःखात्‌ ॥ ७९

श्रीपतश्र उवाच

इति ऋषिवचनमाकरण्य स राजा जराजर्जरित-

कृतार्थता नो यदि कि न लब्धा ॥ ८१

आओीपरादार उक

सुनिक्र्का आगमन सुन राजने उठकर

अर्ध्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया।

तदनन्तर सौभरि मुनिन आसन गहण करके गजासे

कहा-- ॥ ७६ ॥

सौभरिजी बोले--हे राजन्‌ ! मै कन्या-परिग्रहका

अभिल्मपी हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय

भर्गं मते करो । ककुत्स्थवद्यमें कार्यवक्ष आया हुआ

कोई भी प्रार्थी पुरुष कभी खाली हाथ नहीं सरता

॥ ७७ ॥ हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक

राजालोग हैं ओर उनके भी कन्या उत्पन्न हुई हैं; किंतु

याचक्तरैको मांग हुई वस्तु दान देनेके नियममें दुदभ्रतिज्ञ

तो यह तुम्हारा षरोखनीय कुल ही है॥७८॥ हे

रजन्‌ ! तुम्हारे पचास कन्या हैं, उनमेंसे तुम मुझे

केवल एक हो दे दो। हे नृपश्रेष्ठ ! मै इस समय

प्रार्थाभड्रकी आराङ्कसे उत्पन्न अतिशय - दुःखसे

भयभीत हो रहा हूँ॥ ७९ ॥

श्रीपरादारजी बोछे--ऋषिके ऐसे वचन सुनकर

राजा उनके जराजीर्ण देहको देखकर शापके भयसे

अस्वीकार करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुर

नीचेको मुख करके मन-ही-मन चित्ता करने

लगे ॥ ८० ॥

सौभरिजी खोले--हे नरेन्द्र तुम चिन्तित क्यों

होते हो ? मैंने इसमें कोई असहा आत तो कही नहीं

है; जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनो ही है उससे

ही यदि हम कृतार्थं हो स्के तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर

सकते हो ?॥ ८१ ॥

श्रीपराशरजी बोले--तब भगवान्‌ सौभरिके

अथ तस्य भगवतइशापभीतस्सप्रश्नयस्तमुवा- | शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्नतापूर्वक उनसे

चासौ राजा ॥ ८२ ॥

| कडा ॥ ८२ ॥

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