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२३६ ऋग्वेद संहिता भाग-९

१६४८. आ न ऊज वहतमश्चिना युवं मधुमत्या न: कशया मिमिक्षतम्‌ ।

प्रायुस्तारिष्टं नौ रपांसि मृक्षतं सेधतं देषो भवतं सचाभुवा ॥४॥

हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो प्रचुर अन्न प्रदान करे । हमें मधु से परिपूर्ण पात्र प्रदान करें ।.हमे

दीर्घायुष्य प्रदान करें। हमारे सभी विकारों को दूर करके तथा द्वेष भावना को मिटाकर सदैव हमारे

सहायक बनें ॥४ ॥

१६४९. युवं ह गर्भ जगतीषु धत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः ।

युवमर्गिनि च वृषणावपश्च वनस्पर्तीरश्चिनावैरयेथाम्‌ ॥५ ॥

हे शक्तिशाली अश्विनीकुमाते ! आप दोनों गौ ओं मे (अधवा सम्पूर्ण विश्च में) गर्भ (उत्पादक क्षमता) स्थापित

करने में सक्षम हैं अग्नि जल और वनस्पतियों को {प्राणि मात्र के कल्याण के लिए) आप ही प्रेरित करते है ॥५ ॥

१६५०. युवं ह स्थो भिषजा भेषजेभिरथो ह स्थो रथ्या३ राश्येभि:।

अथो ह क्षत्रमधि धत्थ उग्रा यो वां हविष्मान्मनसा ददाश ॥६ ॥

हे अश्विनीकुमारो ! आप दोन श्रेष्ठ ओषधियों से ह उत्तम वैद्य है । उत्तम रथ से युक्त श्रेष्ठ रथी है । हे

पराक्रमी अश्विनीकुमारो ! जो आपके प्रति श्रद्धा भावना से हविष्यात्र अर्पित करते हैं, उन्हें आप दोनों क्षत्र धर्म

के निर्वाह के लिए उपयुक्त शौर्य प्रदान करते हैं ॥६ ॥

[सूक्त - १५८ ]

[ ऋषि- दीर्घतमा ओचध्य । देवता- अश्विनीकुमार | छन्द- त़िष्टपु; ६ अनुष्टप्‌ ]

१६५१. वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ ।

दस्रा ह यद्रेक्ण औचश्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती ॥१ ॥

हे सामर्थ्यवान्‌ , शपूनाशक, सबके आश्रयरूप, दुष्टो के लिए रौद्ररूप, ज्ञानवान्‌ , समृद्धिशालो

असिना रो ! आप हमें अभीष्ट अपूव गन प्रदान करें । उचथ्य के पुत्र दीर्घतमा के द्वारा धन सम्पदा प्राप्ति के

लिए प्रार्थना किये जाने पर आप दोनों श्रष्ठ संरक्षण साम्य के साथ शीघतापूर्वक पहुँचते हैं ॥१ ॥

१६५२. को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः।

जिगृतमस्पे रेवतीः पुरन्धीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता ॥२ ॥

सबको आश्रय देने वाले हे अश्विनीकुमारों ! इस पृथ्वी पर जो भी आप कौ वन्दना करते है, आप दोनों उन्हें

अनुदान प्रदान करते है । आपकी श्रेष्ठ ६५. की तुष्टि के लिए कौन क्या भेंट दे सकता है ? हे सर्वत्र विचरणशील !

आप हमें धनों के साथ पोषक दुधारू गौएँ भी प्रदान करें ॥२ ॥

१६५३ युक्तो ह यद्वां तप्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पञ्र: |

उप वामवः शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्धिरेवै: ॥३ ॥

हे अश्विनीकुमारो ! राजा तुग्र के पुत्र भुन के संरक्षण के लिए आपने अपने गतिशील यान को सागर के

बीच में ही अपनी सामर्थ्य से स्थिर किया । वीर्‌ पुरुष जैसे युद्ध में प्रविष्ट होते है वैसे हो संरक्षणपूर्ण आश्रय के

लिए हम आप दोनों के पास पहुँचे ॥३ ॥

१६५४. उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी वि दुग्धाम्‌ ।

मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्‌ प्र यद्रा बद्धस्त्मनि खादति क्षाम्‌ ॥४ ॥

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