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* पुगणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकधा अ्रयम्‌ *

[ संक्षिप्त गरुडपुराणाङ्क

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भरे हुए नाभिसे नौचे स्थित वस्तिभागकों पकड़कर दबाता

हुआ वह कराह उठता है। अपानवायुके सहित मल-पिण्ड

उसके गुहाभागसे निकलता है और बूँद-बूँद करके मूत्र

टपका करता है। बातज़ दोषके कारण शरीरमें उत्पन्न हुई

अश्मरीरोगका वर्ण श्याम है। उसमें रूक्षता रहती है।

देखनेगें वह काँटोंसे बिंधी हुई-सी प्रतीत होती है ।

पितज दोषके कारण उत्पन्न इस अङ्मरीरोगमे वस्तिभाग

जलने लगता है। उसमें ऐसा प्रतीत होता है, जैसे अंदर-ही-

अंदर कुछ पक रहा हो। इस पित्त-दोषजन्य अश्मका

स्वरूप भल्लातक (भिलावेके बौज़)-के समान होता है।

इसका वर्ण लाल, पीला अधवा काला होता है।

कफजन्य अश्मरी होनेसे वस्तिभागमें पीड़ा होती है।

उस स्थानमें भारोपन तथा शौतलताका अनुभव होता है।

इस रोगमें उत्पन्न हुई अश्मरी आकारमें बड़ो, चिकनी, मधु

(शहद) अथवा श्वेतवर्णा होती है। ये तीनों अश्मरी प्रायः

बालकोंमें हुआ करतौ हैं। आश्रव, मृदुता ओर उपचयकौ

अल्पताके कारण चालर्कोकी अश्मरौ ग्रहण करके सुखपूर्वक

विकालो जा सकतो है ।

शुक्रकै वेगको रोकनेसे प्राणोके शरोरमें शुक्राश्मरी

नामक भयंकर रोगकी उत्पत्ति होती हैं। जब धातु-

प्रवाहिका नाङ़ीसे गिरा हुआ अथवा कुपिते वीर्य दोनों

अण्डकोशॉंके बोच रुक जाता है और लिंग-मासि वह

बाहर नहीं निकलता, तब यहाँ स्थित विकृत वायु विश्ुब्ध

होकर उसको सुखा देता है, उसी दोषसे इस शुक्राश्मरीका

जन्म होता है। इस रोगमें भी वस्तिभागमें पोड़ा होतो है।

रोगीको मूत्र" निति करनेमें कष्ट होता है। इसका भी वणं

श्रेत माना गया है । इसके कारण मूत्रावरोध होनेसे तत्सम्यन्धी

स्थानोंपें सूजन आ जाटी है। अण्डकोष और उपस्थेद्धियके

बौचमें हाथसे दबाया जाय तो वह विलीन हो जाती है। इस

रोगके हो जानेपर रोगौको पौड़ा होती हैं, उसके दुष्प्रभावसे

ज्वर हो जाता है, रोगीको खाँसौ आने लगतो है। इसरो

अश्मरीरोगके कारण रोगीके शरीरमें शकंरारोगका विकार

भो उत्पन्न हो जाता है। यदि इसकी अनुलोम गति होतो है

तो यह मूत्रके साथ बाहर निकल जाती है अथवा मूत्रके

साथ प्रतिलोम-अवस्थामें अंदर हौ स्क जातौ है। क्रुद्ध

हुआ वायु वस्तिभागके मुखकों रोककर आमाशयके जलख्रोतसे

नीचे आनेवाले उस मलिन जलकौ एकत्र कर देता है। इस

मूत्रके संचित होनेसे वस्तिभागमें विकारकौ उत्पत्ति होती है,

रोगीकों कष्ट होता है और उस भागमें खुजलाहट होने

लगती है।

रोगीके शरोरमें विश्वुब्ध वह वायु वस्तिभागके मुखकों

विधिवत्‌ ढककर मूत्रावरोध उत्पन्न करता है तथा वस्तिको

अपने स्थानसे हटाता हुआ उल्टा या इधर-उधर करके

बस्तिमें विकृति उत्पननकर गर्भ-जैसा स्थूल (मोटा) वना

देता है एवं उस स्थानको पीड़ित करता है। वहाँ उसके

कारण जलन होती है। उसमें स्यन्दन होने लगता है ओर

कूल्होंमें भो पौड़ा प्रारम्भ हो जातौ है। रोगीका मूत्र बिन्दुवत्‌

टपकता है, वह अपने सही वेगसे नहो निकलता। वस्तिभागपेँ

पीड़ा बनती रहती है। दवानेपर मूत्र धारा- रूपमे निकलता

है। वायुजन्य इस रोगकौ यातयस्तिके नामसे स्वीकार किया

गया है।

वात॑वस्तिके दो भेद हैं-पहला वस्तिके मुखकों

रोकनेवाला दुस्तर कहलाता है और दूसरा दुस्तरतर।

चस्तिके मुखको ऊपर करनेवाला अत्यन्त कृच्छ्साध्य है,

क्योंकि इसमें बायुका विशेष प्रकोप होता है। मलमागं तथा

वस्तिभागके बौच स्थित वायु अष्ठीलाकृति अर्थात्‌ गोलककडी

या अँदुलौके समान घनोभूत शक्तिशालो, मज़बूत ग्रन्थि

(गाँठ) उत्पन्न करता है, जिसके कारण इसको वाताध्चैला

नामसे अभिहित किया गया है। इस शोगमें वायु रोगोके

अपानवायु तथा मल-मूत्रको अवरुद्ध कर देता है। वस्तिभागपें

विद्यमान कुपिते यायु कुण्डली मारकर तोत्र पौड़ाकों जन्म

देता हैं। वहाँ मूत्रको रोककर वह उसमें अत्यधिक

स्तम्भनका दोष उत्पन्न करता है। ऐसो अवस्थामें रोगौको

बहुत ही अल्प मात्रामें बार-बार मूत्र होता है तथा ऐसी

अवस्थामें रोगी मूत्रको अधिक देरतक रोकनेमें असमर्थ

रहता है। ऐसे सेगको बातकुण्डलिका कहते हैं। जब रोगी

रुके हुए मूत्रकों निकालनेमें पीड़ाका अनुभव करता है तो

वह निरुद्ध मूत्र-कृच्छ्रोग है अथवा मूत्रकों अधिक कालतक

रोकनेके पश्चात्‌ यदि उसका वेग नहीं आत्ता है या रुक-

स्ककर आता है और कुछ कष्ट होता है तो उसको मूत्रातीत

कहा जाता है।

मूत्रके वेगको रोकनेसे प्रतिहत हुआ मूत्र अथवा वायुसे

१-सु“नि०अ० ३, अ>हृ्निःअ० ९।

२-घा>नि> यूषाघात प्र ४४

३-मा०ति> पृत्राधात प्र» रे, ३, शौक ७, ८

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