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हे मुनिश्रेष्ठो ! स्वभावतः विषयों मँ विचरण करने वालो

इद्धि को निग्रह करने को साधु पुरुषों ने प्रत्याहार कहा

है। इदयकमल, नाभि, मूर्धा, पर्वः मस्तक आदि स्थानों में

बैठकर चित्त को एकाग्र करना धारणा है।' स्थानविशेष का

आलप्बनपूर्वक ऊपर कौ ओर जो चिलवृत्तियों कौ

एकतानता रहती है, तथा जो प्रत्यन्तरों से असम्बद्ध रहती है,

उसे विद्वान्‌ लोग ध्यान कहा करते हैं। किसी स्थानविशेष के

आलम्बन से रहित एकाकार होना हो सपाधि है। उसका

बस्तुपात्र से सम्बन्ध रहता है। यही उत्तम योग का उपदेश

है। बारह प्राणायामपर्यन्त धारणा, दादश धारणापर्यन्त ध्यान

और द्वादश ध्यानपर्यन्त समाधि कहौ गईं है।

साथनानाक् सर्वेषामेतत्साथनमुत्तमम्‌॥ ४३॥

ऊर्वोस्परि विपरदराः कृत्वा पादतले उधे।

समासोनात्मनः पद्मप्रमेतदासनमुत्तमप्‌॥ ४४॥

उपे कृत्वा फतदले जानूर्वोस्तरेण हि।

समासीनात्यनः प्रोक्तपासन॑ स्वस्तिकं परम्‌॥ ४५॥

एकं पादप्ैकस्तिन्ि्टभ्योरसमि सत्तमाः।

आसीनारद्धासनमिदे योगसाधनपुत्तमप्‌॥४६॥

आसन तोन प्रकार के कहे हैं- स्वस्तिक, पद्म और

अर्द्धासन। समस्त साधनों में यह अति उत्तम साधन होता है।

है विपरन्रो! दोनों पैरों को जांघों के ऊपर रखकर स्वयं

समासीनं होना पद्मासन है, जो उत्तम आसन कहा गया है।

दोनों पादतलों को जानु ओर ऊर के भीतर करके

समासीनात्मा पुरुष का जो आसन हे, वह परम स्वस्तिक

कहा गया है। एक याद को व्िष्टम्भन करके उसमें रखे-

ऐसो स्थिति को अद्धासन कहते हैं। यह योग साधन के लिये

उत्तम आसन है।

अदेज्ञकाले योगस्य दर्शन न हि विक्त

अम्यध्यासे जले वापि शुक्लपर्णचये तथा॥ ४७॥

जन्तुव्याते श्मज्ञाने च जीर्णगेषटे चतुष्पथे।

सशब्दे सक्षये वापि चैत्यवल्पीकसक्षये॥ ४८॥

अशुधे दुर्जगाक्राने पशलकादिसपचिते।

]. स्वविपयासप्प्रयोगे चितस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां

प्रत्याहारः (यो. सू. २.५४)

2. देशवन्धक्वित्तस्य धारणा। तत्र॒ प्रत्ययैकतानता ध्यानम्‌।

तदेवार्थमाग्रनिर्भास॑ स्वरूपरूनयधिव ससाधि:॥ (यो. सू

३.१-३)

कूर्पपड़ापुराणम्‌

नाचरेहेहवाघे वा दौर्मनस्थादिसंभवे॥ ४९॥

अदेज्ञ काल में योग का दर्शन नहीं होता है। अग्नि के

समीप में- जल में तथा शुष्क पत्तों के समूह के जन्तु व्यास

में, श्मशान में, जोर्ण गोष्ठ में, चतुष्पथ में, सशब्द में, सय

मे, चैत्य और वल्मीक सङ्कय में, अशुभ, दुर्जनक्रात्त और

मशक आदि समन्वित स्थल में नहीं करना चाहिए। देह की

बाधा में दौर्मनस्य आदि के होने पर भो योग का साधन नहीं

करना चाहिए।

सुगुे सुशुभे देशे गुहायां पर्वतस्य था

नहास्तरीरे पुण्यदेशे देवतायतने तथा॥५०॥

गृहे वा सुशुभे देशे निर्जनि जन्तुवर्जिते

युञ्जीत योग सततमात्मानं तत्परायण:॥५ श॥

नपस्कृत्याव योगीदाच्छिष्या्ैव विनायकम्‌

गुरुकैव च पां योगी युक्षीत सुसमाहित:॥ ५ २॥

किसी भी भलो भाँति रक्षित, शुभ, निर्जन, पर्वत कौ

गुफा, नदी का तट, पुष्यस्य, देवायतन, गृह, जन्तुबर्जित

स्थान में आत्मा में तत्परायण होकर सतत योग का अभ्यास

करना चाहिए। वह योगी रियो, विनायक, गुरु और मुझको

नमन करके सुसमाहिते होकर योगाभ्यास करें।

आसनं स्वस्तिकं वद्ध्वा पदामर्द्मवापि वा।

नासिका्रे समां इृष्टिमीपदुन्मीलितेक्षण:॥ ५३॥

कृत्वाघ निर्भयः शान्तस्त्यक्त्वा पायामयं जगत्‌।

स्वात्पन्येव स्थितं देवं चिन्तयेत्परयेश्वरम्‌॥५४॥

स्वस्तिक, पद्म या अर्द्धासन को बाँध कर नासिका के

अग्रभाग में एकटक दृष्टि करे, नेत्र थोड़े खुले होने चाहिए।

निर्भय और शान्त होकर तथा इस मायामय जगत्‌ का त्याग

कर अपनी आत्मा में अवस्थित देव परमेश्वर का चिन्तन

विल्तयेत्परम॑ कोशं कर्णिकायां हिरण्पयम्‌॥५६॥

शिखा के अग्रभाग में द्वादश अंगुल वाले एक पङ्कज कौ

कल्पना करे जोकि धर्मकन्द से समुद्धृत हो और ज्ञानरूपो

नाल से सुशोभित हो। उसमें ऐश्वर्य के आठ दल और

चैरायरूपी परमोत्तर कर्णिका है। उस कणिका में हिरण्मय

परम कोश का चिन्तन करना चाहिए।

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