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अध्याय २२]

विष्णुं तथा लक्ष्मिसमन्वितं च।

रुद्रं च देवं प्रणिपत्य मूर्ध्ना

तीर्थ पहद्‌ ब्रह्मसरः प्रवक्ष्ये ॥ ४९

रन्तुकादौजसं यावत्‌ पावनाच्च चतुर्मुखम्‌ ।

सरः संनिहितं प्रोक्तं ब्रह्मणा पूर्वमेव तु॥५०

कलिद्वापरयोर्मध्ये व्यासेन च महात्मना।

सरःप्रमाणं यत्प्रोक्तं तच्छृणुध्वं द्विजोत्तमाः ॥ ५१

विश्चैश्वरादस्थिपुरं तथा कन्या जरद्गवी।

यावदोघवती प्रोक्ता तावत्संनिहितं सरः ॥ ५२

मया श्रुतं प्रमाणं यत्‌ पठ्यमानं तु वामने।

तच्छृणुध्वं द्विजश्रेष्ठाः पुण्यं वृद्धिकरं महत्‌॥ ५३

विश्वेश्वराद्‌ देववरो नृपावनात्‌ सरस्वती ।

सरः संनिहितं जेयं समन्तादर्धयोजनम्‌॥ ५४

एतदाश्चित्य देवाश्च ऋषयश्च समागताः ।

सेवन्ते मुक्तिकामार्थ स्वगां्थं चापरे स्थिताः ॥ ५५

ब्रह्मणा सेवितमिदं सृष्टिकामेन योगिना।

विष्णुना स्थितिकामेन हरिरूपेण सेवितम्‌॥ ५६

रुद्रेण च सरोमध्वं प्रविष्टेन महात्मना।

सेव्य तीर्थं महातेजा; स्थाणुत्वं प्राप्तवान्‌ हरः ॥ ५७

आद्रैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदः स्मृतः।

कुरूणा च यतः कृष्टं कुरुक्षेत्रं ततः स्पृतम्‌ ॥ ५८

एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्कं

पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते

*कुरुकी कथा, कुरुक्षेत्रका निर्माण-प्रसङ्गं ओर पृथृदक तीर्थका माहात्म्य *

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लोमहर्षणजी बोले-- सबसे पहले उत्पन होनेवाले

कमलासन ब्रह्मा, लक्ष्मीके सहित विष्णु और महादेव

रुद्रकों सिर झुकाकर प्रणाम करके मैं महान्‌ ब्रह्मसर

तौर्थका वर्णन करता हूँ। ब्रह्माने पहले कहा था कि वह

*संनिहित' सरोवर 'रन्तुक' नामक स्थानसे लेकर

"ओजस" नामक स्थानतक तथा “'पावन'से “चतुर्मुख'

तक फैला हुआ है। ब्राह्मणश्रेष्ठों! किंतु अब कलि

और द्वापरके मध्यमे महात्मा व्यासने सरोवरका

जो (वर्तमान) प्रमाण बतलाया है उसे आपलोग

सुनें। 'विश्वेश्वर' स्थानसे 'अस्थिपुर' तक और 'वृद्धा-

कन्या'से लेकर 'ओघवती' नदोतक यह सरोवर

स्थित है॥४९-५२॥

ब्राह्मणश्रेष्ठो मैने वामनपुराणमें वर्णित जो प्रमाण

सुना है, आप उस पवित्र एवं कल्याणकारी प्रमाणको

सुनें। विश्वेश्वर स्थानसे देववरतक एवं नृपावनसे सरस्वतीतक

चतुर्दिक्‌ आधे योजन (दो कोसों)-में फैले इस संनिहित

सरको समझना चाहिये। मोक्षकी इच्छासे आये हुए

देवता एवं ऋषिगण इसका आश्रय लेकर सदा इसका

सेवन करते हैं तथा अन्य लोग स्वर्गके निमित्त यहाँ रहते

हैं। योगीश्वर ब्रह्माने सृष्टिकी इच्छासे एवं भगवान्‌

श्ीविष्णुने जगतके पालनकौ कामनासे इसका आश्रय

लिया था॥५३--५६॥

(इसी प्रकार) सरोवरके मध्ये पैठकर महात्मा

रुद्रने भौ इस तीर्थका सेवन किया, जिससे महातेजस्वी

(उन) हरको स्याणुत्व (स्थिरत्व) प्राप्त हु आ। आदिमं

यह ' ्रष्मवेदी' कहा गया धा, किंतु आगे चलकर

इसका नाम "रामहद' हुआ। उसके बाद राजर्षि

कुरुद्वारा जोते जानेसे इसका नाम “कुरुक्षेत्र' पड़ा।

तरन्तुक एवं असन्तुक नामके स्थार्नोका मध्य तथा

रामहद एवं चतुर्मुखका मध्यभाग समन्तपञ्चक है, जो

कुरुक्षेत्र कहा जाता है। इसे पितामहकी उत्तरवेदी भौ

॥ ५९ | कहते है ॥ ५७-५९॥

॥ इस प्रकार औवामनपुराणमें बाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥ २२॥

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