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१योगचर्या, प्रणयत मद्ठैमा तथा अण्ष्ठौका बर्णन और वनसे सावधान होना १११

उम्नका त्य होता है और न परिणाम। पृथ्वी आदि

भूठसयुदादर्श न तो चह काटा जाता है, =

भोगकर भलता हैं, न जलता है और न सूखता ही

है। शब्द 3गदि चिषर भी उसको लुभा नहीं

सकते। ठरूके लिये शब्द आदि 'बिषय हैं ही

नहीं । न तो बह उनका भोक्ता है और न उनसे

उका संयोग होता हैं। जैसे अन्य खोटे द्रच्योंसे

मिला और श्ड-खण्ड हुआ सुवर्णं जव आगपें

तपाया जाता हैं, तब उसका दोष जल जाता हैं

और बह शुद्ध होकर अपने दूसरे दुकड़ोंसे

मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार यलशोल

चोगी जव थोगाग्सिसे तपता है, तब अत्त:करणके

समस्त दोप जल जानेके कारण ब्रह्यके साथ

एन्मताको प्राप्त हो जाता है। फिर बह किसोसे

पृथक्‌ नहीं रहता। जैरे आगमे डाली हुईं आग

उम्रमें मिलकर एक हो जातौ है, उसका वहीं ताम

और वहों स्वरूप हो जाता है, फिर उसको विशेष

रूपमे पृथक्‌ नहों किया जा सकता, ठस तरह

जिसके पाप दाध हो गये हैं, लह योगी परक्रद्मके

साथ एकतरो प्राप्त होनेषर फिर कभी इनसे

पृच्‌ उहीं होता। जैसे जलम डाला हुआ जल

उसके साथ मिलकर एक हों जाता है, उसी

प्रकार बोगोका आत्मा परमात्मा मिलकर तदाकार

हो जाता दै।

योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना

अलर्क बोले--भग़वन्‌! अल भै योगोक्रे

आच्ार-ध्सवहारका यथार्थ बर्ण। सुनना चाहता

हूँ। बह किस प्रकार ब्रह्मके मार्गका अनुसरण

करके कभी क्लोम नदीं पड़ता?

दत्तत्रेयजीने कटहा-राजन्‌। ये जो मान और

अपन हैं, ये साधारण मनुरष्योको भसत्रता अर

उद्भेग दैनेनाले हांते ई । उन्हें मावसे प्रसन्नता और

अमानस उट्ढेग होता है; किन्नू योगी उन दोनोंको

ही ठीक्र उलटे अर्धमें ग्रहण करता है। अत: वे

उसकी सिद्धिपें सहायक होते हैं। योगॉक्रे लिये

मान और अपमाठछों विष एतं अमृतके रूपे

जताया गभ है। इनमें अपमात तो अनृत है और

मार भयंकर तरिए। योगी गार्गको भलीभौते देखका

गैर रखे। बस्तसे छाउकर जल पोगे, सत्य वचन

बोले और बुद्धिस विचार करके जो टीक जान

पड़े, ठसोका चिन्तन करे ।* योगदेत्ता पुरुष आतिथ्य,

श्राद्ध, यज्ञ, देवयात्रा तथा उत्सवोंमें > जाय। क्लर्यको

सिद्धिके लिये किसी जड़े आदमीके यहाँ भौ कभ

ने जाय । जब एृहस्थके यहाँ रसोई घरसे धुँ न

निकलता हो, आग बुझ गवी हो और घरके सब

लोग स्क-पों चुके हों, उस समय योगी भिक्षाके

लिये जाय: पस्सु प्रतिदिन एक हो घरपर > जाय।

योगम प्रवृत्त रहनेबाला पुरुप सत्पुरुषोंके पार्गको

कलङ्कित त करते हुए प्रायः ऐसा व्यवहार करो,

जिससे लोग 3सक्का सम्मान न करें, तिरस्कार हो

करें। बह गृहस्थोंके यहाँसे अथवा घूमते-फिरते

रहनेवाले लोके घरोंसे भिक्षा प्रहण करे: इनमें

भी पहली भरथात्‌ गृहस्थके घरको भिक्षा ही सर्वश्रेष्

एवं मुख्य है । जो गृहस्थ विनीत. श्रद्धालु, जिवेच्िद

श्रेत्रि५ एत्रं उदार इृदयचाले हों, उन्होंके यहाँ

योगीकों सदा भिक्षाक्ते लिये जाना चाद्धिने । इनके

बाद जो दुष्ट और पत्तित न हों. ऐसे अन्य लोगोंके

*मागापाणनी चाछेतों प्रील्शुद्रेशकर्स नृणाम्‌ । शवे लिपरीतार्थी योगिन: सिझिकारकों।'

सानपमानों

माकनौ तवरेवदूर्धिवमृरे आनो ऽमृतं ततरे कारस्तु छिप चतम्‌ ॥

तदुप -वनेत्पादं उरम्नरूनं त्नं पियेग्‌ । सत्यपूतं चढेंद्रानी नुपू = चिन्तये ॥ । ८१ ` २-४३

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