मं० १ सुर ८० १११
८७९. स त्वामददवृषा मदः सोपः श्येनाभृतः सुतः ।
येना वृत्र॑ निरद्धयो जघन्थ वज्रिन्नोजसार्चन्ननु स्वराज्यम् ॥२॥
है वज्रधारी इन्द्रदेव ! उस श्येन पक्षी द्वारा (तत्रगति से) लाये हुए अभिपुत, वलवर्धक सोमरस ने आपके
हर्ष को बढ़ाया । अनन्तर आपने अपने बल मे वृत्र को मारकर जलो से दूर कर दिया । इस प्रकार अपने राज्य क्षेत्र
अर्थात् देव समुदाय को सम्मानित किया ॥२ ॥
८८० प्रेह्भीहि धृष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते।
इन्द्र नृष्णां हि ते शवो हनो वृत्रं जया अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥३ ॥
हे इनदरदेव ! आप शत्रुओं पर चारों ओर से आक्रमण कर उन विनष्ट करे । आपका वद्र अनुपम शक्तिशाली
और शत्रुओं को तिरस्कृत करने वाला है । अपने अनुकूल स्वराज्य की कामना करते हुए आप वृत्र का वध करें
और विजय प्राप्त कर जल प्राप्त करायें ॥३ ॥
[वर्षा के अवरोध दूर कर वर्षा करायें। |
८८१. निरिद्ध भुम्या अधि वृत्रं जघन्थ निर्दिव:।
सृजा मरुत्वतीरव जीवधन्या इमा अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥४ ॥
है इन्द्रदेव ! आपने वृत्र को पृथ्वी से खांचकर आकाश पे उठाकर निःशेष होने तक नष्ट किया ।
आपने जीवन धारक इन मरुदूगणो से युक्त जलों को प्रवाहित होने के लिए छेड़ा और आत्म सामर्थ्य में
प्रतिष्ठित हुए ॥४ ॥
८८२. इन्द्रो वृत्रस्य दोधतः सानुं बज्रेण हीकितः।
अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्र्चत्ननु स्वराज्यम् ॥५ ॥
क्रोध में आकर इन्द्रदेव ने भय से काँपने वाले वृत्र की ठुड्डी पर वज्र से प्रहार किया । जल प्रवाहो को बहने
के लिए प्रेरित किया । वे इन्द्रदेव इस प्रकार आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित हुए ॥५ ॥
८८३. अधि सानौ नि जिप्नते वज्रेण शतपर्वणा ।
मन्दान इनदरो अन्धसः सखिभ्यो गातुमिच्छत्यर्च्ननु स्वराज्यम् ॥६ ॥
सोम से आनन्दित हुए इन्द्रदेव सौ तीक्ष्ण शूल वाले वज्र से, वृत्र को ठुड्ढी पर आघात करते हँ । मित्रों के
आत्म सामर्थ्य से प्रकाशित होते हैं ॥६ ॥
८८४. इन्द्र तुभ्यमिदद्विवो3नुत्त वच्रिन्वीर्यम् ।
यद्ध त्यं मायिनं मृगं तमु त्वं माययावधीरर्चन्नु स्वराज्यम् ॥७ ॥
हे पर्वतवासी, स्वराज्य कौ अर्चना करने वालों के सहायक वज्रधारी इन्द्रदेव ! आपकी शक्ति शत्रुओं से
अदेव है । छल-छट्मी पृग का रूप धारण करने वाले, वृत्र का हनन करने के लिए आप कूटनोति का भी सहारा
॥७ ॥
[ यदि शत्रु छल-एद्प करता है,तो उसके लिए कूटनीति का प्रयोग करना घी उचित ठहराया जाता है ]
८८५. वि ते वज्रासो अस्थिरन्नवतिं नाव्या३ अनु।
महत्त इन्द्र वीर्यं बाह्नोस्ते बलं हितमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥८ ॥
हे इन्द्रदेव ! आपका व्र नब्बे नावों से धिरे वृत्र को विचलित करने में समर्थ है । आपका पराक्रम अति
पहान् है । आपकी भुजाओं का बल भी अपरिषित है । आप आत्म-सामर्ध्य से प्रकाशित हों ॥८ ॥