आचारकाण्ड ] * भीष्पकमणिकी परीक्षा-विधि + १९९१
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पूर्णछपसे नीला और शुक्लवर्णसमन्वित तथा स्निग्ध होता मणिशास्त्रवेत्ताओंने बैदूर्यमणिके समान ही पुष्परागमणिका
है, वह सोमालक गुणथुक्त मणि है। जो पत्थर अत्यन्त मूल्य स्वीकार किया है। इसको धारण करनेसे वही फल
लोहित वर्णका होता है, उसीकों ' पराग" कहा जाता है। प्राप्त होते हैं, जो वैदूर्यमणिके धारणसे होते हैं। नारियेकि
जो पूर्ण नीलवर्णकी सुन्दर आभासे सम्पन्न रहता है, उसे द्वारा धारण किये जानेपर यह मणि उन्हें ' पुत्र" प्रदान करती
इन्द्रनीलमणि' कहते हैं। है। (अध्याय ७४)
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कर्केतनमणिकी परीक्षा-विधि
सूतजीने कहा - पवनदेवने रत्रबीजरूप उस दैत्यराज
क्लासुरके नखोको प्रसन्तापूर्वक लेकर कमल-वनप्रान्तमें
बिखेर दिया। बायुद्वार विकीर्णं उन नखोसि पृथिवीपर कर्केतन
नापक पुज्यतम सणिका जन्य हुआ। उसका वर्ण रक्त, चन्र
एवं मधुसदृज्ञ, ताम्र, पीत, अग्निवत् प्रज्वलित, समुज्यल,
जील तथा श्रेत होता है। सत्र-व्याधि आदि दोषोके कारण
यह कठोर एवं विभिन्न वर्णोंथें भी प्राप्त होती है।
जो कर्केतनमणियाँ स्निग्ध, स्वच्छ, समराग, अनुरकजित,
पीत, गुरुत्व थर्पसे संयुक्त एवं विचित्र आभासे व्याप्त तथा
संताप, ब्रण और व्याधि आदि दोषोंसे रहित होती हैं, उन्हे
विशुद्ध या परम पवित्र मात्रा जाता है।
स्वर्ण-पत्रमें सम्पुटितकर जब उन मणियोंकों अग्निष
शोधित किया जाता है तो वे अत्यधिक देदोप्यमान हो
उठती हैं। ऐसी विशुद्ध ककेंतनमणिं रोगका नाश करनेवाली,
कलिके दोषोंको नष्ट करनेवाली, कुलकी वृद्धि करनेवाली
तथा सुख प्रदान करनेवाली होती है।
जो मनुष्य अपने शरीरकों अलंकृत करनेके लिये इस
प्रकारके बहुत-से गुणोंवाली कर्केतन नामक मणिको धारण
करते हैं, वे पूजित, प्रचुर धनसे परिपूर्ण तथा अनेक बन्धु-
आन्यवॉसे सम्पन्न होते हैं और नित्य उज्वल कीर्तिसे सम्पन्न
तथा प्रसन्न रहते हैं।
अन्य दूषित कर्केततमणिकों धारण करनेवाले विकृत,
व्याकुल, नीली कान्तिवाले, मलिन झुतिवाले, स्नेहरहित,
कलुषित तथा विरूपवान् हो जाते हैं। वे तेज, दीप्ति, कुल,
पुष्टि आदिसे विहीन होकर दूषित कर्केततनके सदृत्ञ
शरीरकों धारण करते हैं। (अध्याय ७५)
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भीष्मकमणिकी परीक्षा-विधि
सूतजीने पुनः कहा--उस देवज्ञत्रु बलासुरका वर्य
हिमालय पर्वते उत्तरी प्रान्तमे गिरा धा। अतः यह देश
उत्तम भीष्मकमणिरयोका एत्राकर् बन गया। वहाँसे प्राप्त
होनैवाली भीष्यकमणियाँ शद्भु एवं प्यके समान समुख्वल,
मध्याह्कालीन सूर्यकी प्रभाके समान शोभावाली तथा
वञ्के समान तरुण होती हैं।
जो मनुष्य अपने कण्ठादिक अङ्गौ स्वर्णसूत्रमें गुँथी
हुई विशुद्ध भीष्मकमणिको धारण करता है, वह सदा सुख-
समृद्धि प्रदान करनेवाली सम्पदाओंकों प्राप्त करता है।
वर्ने भी ऐसी मणिसे सुशोभित मनुष्यकों देखकर समीप
आये हुए दीपी, भेड़िया, शरभ, हाथी, सिंह और व्याघ्रादि
हिंसक वन्य प्राणी तत्काल भाग जाते हैं। उस पणिको
धारण करनेसे किसी भी प्रकारका भय नहीं रह जाता है।
लोग भौष्मकमणिके स्वामौका उपहास नहीं कर पाते हैं।
भौष्मकमणिसे संयुक्त अँगूटौको धारण करके जो
व्यक्ति अपने पितरॉका तर्पण करता है, उसके पितरॉकों
बहुत वर्षोंतकके लिये संतृप्ति प्राप्त हो जाती है। इस रत्नके
प्रभावसे सर्प, आखु (चूहा), बिच्छू आदि अण्डज जोबोंके
विष स्वयं शान्त हो जाते हैं। जल, अग्नि, शत्र ओर चोरोंके
भयंकर भय भी नष्ट हो जाते हैं।
शैवाल एवं मेधकी आभासे युक्त, कठोर, पीत
प्रभावालौ, मलिन युति और विकृत वर्णवालौ भौष्मकमणिका
विद्वान् व्यक्तिकों दूरसे ही परित्यागः कर देना चाहिये।
पण्डितोंकों देश-कालके परिज्ञानके अनुसार इन मणियोंके
मूल्योंका निर्धारण करना चाहिये; क्योंकि दूर देशमें उत्पन्न
हुई मणियोंका मूल्य अधिक तथा तिकट देशमें उत्पन्न हुई
मणियोंका मूल्य उसकी अपेक्षा कुछ कम होता है।
(अध्याय ७६)
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