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$ रह डिल ५

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आज्ञासे उसको नरकमेँ गिरना पड़ेगा। यह

बात! सत्य है, सत्य है। इसमें संशय नहीं

है।*तुम इस त्तरेकपे। मनुष्योंके लिये

विशेषत: भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले

और ` भक्तकि ध्येय तथा पूज्य होकर

प्राणि्योका निग्रह और अनुग्रह करो ।

फसा कहकर भगवान्‌ शिवने पेरा हाथ

पकड़ लिया और श्रीविष्णुको सौंपकर उनसे

कडा-- "तुम संकटके समय सदा इनकी

सहायता करते रहना । सत्रके अध्यक्ष होकर

सभीको भोग और मोक्ष प्रदान करना तथा

सर्वदा समस्त कामनाओंका साधक एवं

सर्वश्रेष्ठ बने रहना। जो तुम्हारी झरणपें आ

गया, वह निश्चय ही पेरी झरणमें आ गया।

जो मुह्ये और तुममें अन्तर समझता है, यह

अवङ्य नरकमें गिरता है।' †

अह्याजी कहते हैं--देवपें ! भगवान्‌

शिक्का यह क्चन सुनकर मेरे साथ भगवान्‌

चिष्णुने सबको खहामें करनेवाले विश्वनाथ-

को प्रणाम करके मन्दस्वरमें कहा--

श्रीविष्णु बोके--क्ररुणासिन्थो !

जगन्नाथ हांकर ! मेरी यह बात सुनिये । मैं

आपकी आज्ञाके अधीन रहकर यह सब

कुछ करूँगा। स्वामिन्‌ ! जो मेरा भक्त

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होकर आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्च

ही नरकवास प्रदान करें! नाथ! जो

आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

जो ऐसा जानता है, उसके लिये मोक्ष दुर्लभ

नहीं है ।$

श्रीहरिका यह कथन सुनकर दुःखहारी

हरने उनकी यातका अनुमोदन किया और

नाना प्रकारके धर्मोंका उपदेश देकर हम

दोनॉके हितकी इच्छासे हमें अनेक प्रकारके

वर दिये। इसके याद्‌ भक्तवत्सल भगवान्‌

दाष्मु कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम

दोनोंके देखते-देखते सहसा वहां अन्तर्धान

हो गये । तभीसे इस स्प्रेकमें ल्िड्र-पूजाका

विधान चा हुआ है। छिड्में प्रतिष्ठित

और मोक्ष देनेब्वाले हैं।

झिवलिड्की जो येदी या अर्घा है, वह

महादेवीका स्वरूप है और लिङ्गं साक्षात्‌

पहेश्चरका । त्यक्ता अधिष्ठान होनेके कारण

भगवान्‌ शिवको लिङ्ग कहा गया है; क्योंकि

उन्हींमें निखिल जगत्कां लय होता है।

महामुने ! जो शिवलिड्नके समीप कोई कार्य

करता है, उसके पुण्यफलूका वर्णन

करनेकी शक्ति सुझपें नहीं है ।

(अध्याय १०)

है:

* रुद्रधक्तो ने स्तु तब निन्द करिष्यति । तशय पुण्य॑ च निश्चिसे रुतं भस्म भविष्यति

नरके पतनं तस्य॒ स्वद्धेमारुरुपोराम । मदाज्ञया भयेद्रिष्णो तथे सत्यं व संदाय:॥

{शि पुः रु सूछ स^ ६७ ॥ ८-९)

+ वो य: समाश्रितो नू भवेव समाचरितः । अन्तरे गश्च जानाति निरये पतति रुक्‌ ॥

(चि पु" रु० सुः खैर १० । ६४)

‡ मम भक्तश्च यः स्शपिस्तव निन्दा करिष्यति । तस्य यै निरये वास प्रयच्छ नियतं धुवम्‌ ॥

लद्धक्त यो भवेत्सवामित्मम प्रियतरो हि सः । एस यै यो विजानति तश्च सुकतिर्न दुर्लभ ॥

(शिर फः रू मृ" कौ ० ३०-६१)