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५२ + संक्षिप्त

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खक्ती रहती है * । वहे पूजकपर कृपा करके

उसे अपना आन्तरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।

अतः: मुनीश्चरो ! आन्तरिकः आनन्‍्दकी

प्राप्तिके लिये, दिवलिड्ञको भात्ता-पिताका

स्वरूप मानकर उसकी पूजा ऋरनी चाहिये ।

भर्ग (शिव) पुरुषरूप है और धर्गां (दिवा

अथवा इाक्ति ) प्रकृति कहलाती दै । अव्यक्त

आन्तरिक अधिष्ठानरूप गर्भक्रो पुरूष कहते

हैं और सुव्यक्त आन्तरिक अधिष्ठानभूत

गर्भको अकृति। पुरुष आदिगर्ध है, बह

श्रकृतिरूप गर्भसे युक्त होनेके कारण

गर्धवान्‌ है; क्‍योंकि वही प्रकृतिका जनक

ई । प्रकृत्तिमें जो पुरुषका संयोग होता है, यही

पुरुषसे उसका प्रथम जन्म कहत्मता है।

अच्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्तादिके क्रमसे जो

जगत्का व्यक्त होना है, यही उस प्रकृतिका

द्वितीय जन्य कहलाता है। जीव पुरुषसे ही

बारंबार जनप और मृत्युको आप्त होता है।

मायाद्वारा अन्यरूपसे प्रकट किया जाना ही

उसका जन्म कहलाता है, जीवका शरीर

जन्पकालसे ही जीर्णं (छः भाव्रविकारोसे

युक्त) होने लगता है, इसीलिये उसे "जीव!

संज्ञा दी गयी है। जो जन्म लेता और विविधे

पाश्ोंद्वारा तनाव (बन्धन) में पड़ता है,

उम्रका नाम जीय है; जन्म और चन्थन जीव-

अव्दका अर्थ ही है। अतः जन्मपृत्युरूपी

अख्नकी निवृिके त्प्यि जन्पके

अधिष्ठानभूत मात्‌ -पितुस्वरूप दिनलिङ्गेका

पूजन करना चाद्ये ।

गायका दूध, गायका दही और गायका

घीं--इन तीनोंकों पूजनके स्किये दाहद्‌ और

खक्ररके साथ पृथक्‌-पृथक्‌ भी रखे और इन

सबको मिलाकर सम्मिछितरूपसे पञ्लामृत

भी तैयार कर ले । (इनके द्वारा हियछिकुका

अभिषेक एलं स्रान कराये), फिर गायके

दूध और अज्नके मेलसे नैवेद्य तैयार करके

अ्रणव मन्त्रके उच्चारणपूर्वक उसे भगवान्‌

झिवको अर्पित करें। सम्पूर्ण श्रणक्रक्तो

ध्वनिलिङ्ग कहते हैं। स्वयम्भूलिद्ग नादस्वरूप

झेनेके कारण नादछिड्ड कहा गया है। यन्त्र

या अर्धा किल्दुस्वरूप होनेके कारण

बिल्दुलिड्ल्‍के रूपमे विख्यात है। दसमें

अचल्ूरूपसे प्रतिष्ठित जो दिवलििङ्ग है, वह

मकार-स्थस्थ्य है, इसलिये मकारलिवद्ग

कहलाता दै । सवारी निकालने आदिके लिये

जो चरलिद्ग होता है, वह उकार स्वरूप होनेसे

उकारलिवद्गं कहा गया है तथा पूजाको दीक्षा

देनेवाल्क जो गुरु या आचार्य हैं, उनका विग्रह

अकारका भ्रतीक्र होनेसे अकारलिङ्ग भाना

गया है। इस प्रकार अकार, उकार, मकार,

बिन्दु, नाद और ध्वनिक रूपमे लिड्ल्‍डकेः छः

चेद हैं। इन छदो छिड्लॉंकी नित्य पूजा करनेसे

साधक जीवनमुक्त हो जाता है, इसमें सेंझय

नहीं है। (अध्याय १६)

प्र

+ मात देती विन्टुछूपा नाद: सयः गतता ॥

पृश्निताध्यां पितृष्यां तु पयस्वद्‌ एव हि । परानन्दाय

प्रपूजठेद ॥

सा देलौ सगत साहा र शियो जगते पित । तरोः सुधूफके निलये कृपचिक्य हि. अधे ॥

{द्विव} कि १६। ९१६-- ९३)

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