करता हूँ, जिनसे दीक्षा, होम और लय सम्पादित
होते हैं। "ॐ यं भूतानि वियुङ्कव हुं फट्।
(अर्थात् भूतोंको मुझसे अलग करो ।)-इस
मन््रसे ताडन करनेका विधान है। इसके द्वारा
भूतोंसे वियोजन (बिलमाव) होता है। यहाँ
वियोजनके दो मन्त्र है । एक तो वही है, जिसका
ऊपर वर्णन हुआ है और दूसरा इस प्रकार है-
"ॐ यं भूतान्यापातयेऽहम्।' (मै भूर्तोको अपनेसे
दूर गिराता हूँ)। इस मन्त्रसे आपातन ' ( वियोजन)
करके पुनः दिव्य प्रकृतिसे यों संयोजन किया
जाता है। उसके लिये मन्त्र सुनो-' ॐ यं भूतानि
युङ्क्ष्व ।' अब होम-मन्त्रका वर्णन करता हूं ।
उसके बाद पूर्णाहुतिका मन्त्र बताऊँगा। “ॐ
भूतानि संहर स्वाहा ।'- यह होम-मन्त्र है और
"ॐ अं ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अं वौषट् ।'-
यह पूर्णाहुति-मन्त्र है । पूर्णाहुतिके पश्चात् तत्त्वमें
शिष्यको संयुक्त करे। विद्वान् पुरुष इसी तरह समस्त
तत्त्वोंका क्रमशः शोधन करे । तत्त्वोकि अपने-अपने
बीजके अन्तर्मे ' नमः ' पद जोड़कर ताडनादिपूर्वक
तत्त्व-शुद्धिका सम्पादन करे ॥ ४८--५३॥
"ॐ रां (नमः) कर्मेन्द्रियाणि।', "ॐ दें
(नमः) बुद्धीन्द्रियाणि ।'-इन पदोकि अन्तमें
“वियुङ्क्ष्व हं फट् ।' की संयोजना करे । पूर्वोक्त
“यं ' बीजके समान ही इन उपर्युक्त बीजोंसे भी
ताडन आदिका प्रयोग होता है । ' ॐ सुं गन्धतन्मात्रे
बिम्बं युङ्क्ष्व हुं फट्।', ' ॐ सं पाहि हां ॐ स्वं
स्वं युङ्क्व प्रकृत्या अं जं हुं गन्धतन्मात्रे
संहर स्वाहा ।'- ये क्रमश: संयोजन ओर होमके
मन्त्र हैं। तदनन्तर पूर्णाहुतिका विधान है । इसी
प्रकार उत्तरवर्ती कर्मभि भी प्रयोग किया जाता है ।
"ॐ रां रसतन्मात्रे । ॐ तें रूपतन्मात्रे। ॐ चं
स्पर्शतन्मात्रे । ॐ यं शब्दतन्मात्रे । ॐ मं नमः । ॐ
सों अहंकारे। ॐ नं बुद्धौ । ॐ ॐ> प्रकृतौ ।' यह
दीक्षायोग एकव्यूहात्मक मूर्तिके लिये संक्षेपसे
बताया गया है । नवव्यूहादिक मूर्तियोंके विषयमे
भी ऐसा ही प्रयोग है। मनुष्य प्रकृतिको द्ध
करके उसे निर्वाणस्वरूप परमात्मामें लीन कर दे ।
फिर भूतोंकी शुद्धि करके कर्मेन्द्रियेंका शोधन
करे॥ ५४--५९॥
तत्पश्चात् ज्ञानेन्द्रियॉका, तन्मात्राओंका, मन,
बुद्धि एवं अहंकारका तथा लिङ्गात्माका शोधन
करके सबके अन्तमं पुनः प्रकृतिकी शुद्धि करे ।
“शुद्ध हुआ प्राकृत पुरुष ईश्वरीय धाममें प्रतिष्ठित
है। उसने सम्पूर्ण भोगॉका अनुभव कर लिया है
और अब वह मुक्तिपदे स्थित है।'--इस प्रकार
ध्यान करे और पूर्णाहुति दे । यह अधिकार-प्रदान
करनेवाली दीक्षा है । पूर्वोक्त मन्त्रके अङ्गोद्रारा
आराधना करके, तत्त्वसमृहको समभाव
(प्रकृत्यवस्था) -ये पहुँचाकर, क्रमशः इसी रीतिसे
शोधन करके, अन्तम साधक अपनेको सम्पूर्ण
सिद्धियोंसे युक्त परमात्मरूपसे स्थित अनुभव
करते हुए पूर्णाहुति दे- यह साधकविषयक
दीक्षा कही गयी है। यदि यज्ञोपयोगी द्रव्यका
सम्पादन (संग्रह) न हो सके, अथवा अपनेमें
असमर्थता हो तो समस्त उपकरणोंसहित श्रेष्ठ गुरु
पूर्ववत् इषटदेवका पूजन करके, तत्काल उन्हें
अधिवासित करके, द्वादशी तिथिमें शिष्यको
दीक्षा दे दे। जो गुरुभक्त, विनयशील एवं समस्त
शारीरिक सदूरणोसे सम्पन्न हो, ऐसा शिष्य यदि
अधिक धनवान् न हो तो वेदौपर इष्टदेवका
पूजनमात्र करके दीक्षा ग्रहण करे । आधिदैविक,
आधिभौतिक और आध्यात्मिक, सम्पूर्णं अध्वाका
सृष्टिक्रमसे शिष्यके शरीरे चिन्तन करके, गुरु
पहले बारी-बारीसे आठ आहुतियोंद्वार एक-
एककी तृप्ति करनेके पश्चात्, सृष्टिमान् हो, वासुदेव
आदि विग्रहोंका उनके निज-निज मन्त्रौद्ारा पूजन