५२ ऋग्वेद संहिता भाग-१
४३३. रायस्पूर्धि स्वधावोऽस्ति हि तेऽग्ने देवेष्वाप्यम् ।
त्वं वाजस्य श्रुत्यस्य राजसि स नो मृक महां असि ॥१२॥
हे अन्नवान् अग्ने ! आप हमें अन्न - सष्यदा से अभिपूरित करें । आप देवों के मित्र ओर प्रशंसनीय बलों के
स्वामी हैं। आप महान् हैं। आप हमें मुखौ बनाएँ ॥१२॥
४३४. ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता ।
ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाधद्धिर्विह्वयापहे ॥१३॥
है काष्ठ स्थित अग्निदेव ! सर्वोत्पादक सवितादेव जिस प्रकार अन्तरिक्ष से हम सबको रक्षा करते है,
उसी प्रकार आप भी ऊँचे उठकर, अन्न आदि पोषक पदार्थ देकर हमारे जीवन की रक्षा करें । मन्त्रोच्चारणपूर्वक
हवि प्रदान करने वाले याजकं आपके उत्कृष्ट स्वरूप का आयाहन करते हैं ॥१३ ॥
४३५. ऊर्ध्वो नः पाह्मांहसो नि केतुना विश्वं समत्रिणं दह ।
कृथी न ऊर्ध्वाञ्चरथाय जीवसे विदा देवेषु नो दुवः ॥१४॥
हे यूपस्थ अग्ने ! आप ऊँचे उठकर अपने श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पापों से हमारी रक्षा करें, मानवता के शत्रुओं
का दहन करें, जीवन में प्रगति के लिए हमें ऊँचा उठाएँ तथा हारी प्रार्थना देवों तक पहुँचाएँ ॥१४ ॥
४३६. पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूतेंरराव्ण: ।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्धानो यविष्ठ्य ॥९५ ॥
हे महान् दौप्तिवाले, चिरयुवा अग्निदेव ! आप हमें रक्षसो से रक्षिते करे, कृपण धूतोँ से रकित करे तथा
हिंसको ओर जघन्यो से रक्षित करें ॥१५ ॥
४३७ घनेव विष्वग्वि जहाराग्णस्तपुर्जम्भ यो अस्मध्रुक् ।
यो मर्त्यः शिशीते अत्यक्तुभिर्मा नः स रिपुरीशत ॥ १६ ॥
अपने ताप से रोगादि कष्टो को मिटाने वाले हे अग्ने आप कृपणो को गदा से विनष्ट करें । जो हमसे
द्रोह करते हैं, जो रात्रि में जागकर हमारे नाश का यत्न करते हैं, वे शत्रु हम पर आधिपत्य न कर पाएँ ॥१६ ॥
४३८. अग्निर्वने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् ।
अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥१७ ॥
उत्तम पराक्रमी ये अग्निदेव, जिन्होंने कण्व को सौभाग्य प्रदान किया, हमारे मित्रों की रक्षा की तथा
“प्रेध्यातिधि' और "उपस्तुत" (यजमान) की धी रक्षा की है ॥१७॥
४३९. अग्निना तुर्वशं यदुं परावत उग्रादेवं हवामहे ।
अभ्निर्नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं दस्यवे सहः ॥१८ ॥
अग्निदेव के साथ हम 'तुर्वश' "यद्" और "उगरदेव' को बुलाते है । वे अग्निदेव 'नववास्तु, "बृहद्र"
और "तु्वीति' (आदि राजर्षियों ) को भी ले चले, जिससे हम दुष्टो के साथ संघर्ष कर सकें ॥१८ ॥
४४०. नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते ।
दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥१९॥