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* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसोख्यदप्‌ «

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु

सृतीया-कल्पका आरभ्भ, “गोरी-तृतीया-ब्रत-विधान और उसका फल

सुमन्तु मुनिने कहा--राजन्‌ ! जो स्त्री सब प्रकारका

सुख चाहती है, उसे तृतोयाका व्रत करना चाहिये। उस दिन

नमक नहीं खाना चाहिये। इस विधिसे उपवासपूर्वक जीवन-

पर्यन्त इस ब्रतका अनुष्ठान करनेवाली खीको भगवती गौरी

संतुष्ट होकर रूप-सौभाग्य तथा स्मवण्य प्रदान करती हैं। इस

ब्रतका विधान जो स्वयं गौरीने धर्मराजसे कहा है, उसीका

वर्णन यै करता हूँ, उसे आप सुरनें--

भगवती गौरीनि धर्मराजसे कहा--धर्मराज ! ली-

पुरुषोके कल्याणके छिये चैने इस सौभाग्य प्राप्त करानेवाकते

ब्रतको बनाया है। जो स्त्री इस अतको नियमपूर्वक करती है,

वह सदैव अपने पतिके साथ रहकर उसी प्रकार आनदका

उपभोग करती है, जैसे भगवान्‌ शिवके साथ चै आनन्दित

रहती हूँ। उत्तम पतिकी प्राप्तिके लिये कन्याकों यह व्रत करना

चाहिये । व्रते नमक न खाये । सुवर्णकी गौरी-प्रतिमा स्थापित

करके भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्त हो गौरीका पूजन करे। गौरीके

लिये नाना प्रकारके नैवेद्य अर्पित करने चाहिये। रे

लवणरहित भोजन करके स्थापित गौरी-प्रतिमाके समक्ष हो

शयन करे । दूसरे दिन क्राहम्णोको भोजन कराकर दक्षिणा दे।

इस प्रकार ओ कन्या कत करती है, वह उत्तम पतिको प्राप्त

करती है तथा चिरकालतक श्रेष्ठ भोगॉंको भोगकर अन्ते

पतिके साथ उत्तम ल्प्रेकॉंको जाती है।

यदि विधवा इस चतको करती है तो वह स्वर्गमें अपने

पतिक प्राप्त करती है और बहुत समयतक वहाँ रहकर पतिके

साथ यहाँके सुखोंका उपभोग करती है और पूर्वोक्त सभी

सुखोंको भी प्राप्त करती है। देवी इन्द्राणीने पुत्र-प्राप्तिके लिये

इस त्रतका अनुष्ठान किया थो, इसके प्रभावसे उन्हें जयन्त

नामका पुत्र प्राप्त हुआ। अरूखतीने उत्तम स्थान प्राप्त करनेके

लिये इस ब्रतका निमय-पालन किया था, जिसके प्रभावसे वे

पतिसहित सबसे ऊपरकता स्थान प्राप्त कर सकी थीं। ये

आजतक आकादामें अपने पति महर्षि वतिष्ठके साथ दिखायी

देती हैं। चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणीने अपनी समस्त सपत्रियॉंको

जीतनेके लिये बिना लवण खाये इस व्रतको किया तो वे

अपनी सभी सपन्रियोमे प्रधान तथा अपने पति चन्द्रमाकी

अत्यन्त प्रिय पत्नी हो गयीं। देवी पार्यतीकी अनुकम्पासे उन्हें

अचल सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इस प्रकार यह तुतीया तिथि-घरत सारे संखारये पूजित है

और उत्तम फल देनेवास्त्र है। वैज्ञाख, भाद्रपद तथा माघ

मासकी तृतीया अन्य मासोंकी तृतीयासे अधिक उत्तम है,

जिसमें माघ मास तथा भाद्रपद मासकी तृतीया खियोंको

विदोष फल देनेवाली है।

वैशाख मासक तृतीया सामान्यरूपसे सबके लिये है।

यह साधारण तुक्तीया है। माघ मासकी तृतीयाको गुड़ तथा

लूथणका दान करना स्तरी-पुरुषोंके लिये अत्यन्त श्रेयस्कर है।

भाद्रपद मासकी तृतीयामें गुड़के बने अपू्पों (पालपुआ) का

दान करना चाहिये। भगवान्‌ दाङ्करकी प्रसन्नताके लिये माघ

मासकी तृतीयाको मोदक और जलका दान करना चाहिये।

वैज्ञाल्ष मासकी तृतीयाको चन्दनमिश्रित जल तथा मोदकके

दानसे ब्रह्मा तथा सभी देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओंनि

वैर मासकी तृतीयाको अक्षय तृतीया कहा है। इस दिन

अप्र-वस््र-भोजन-सुवर्ण और जलः आदिका दान करनेसे

अक्षय फलक प्राप्ति होती है। इसी विज्ेषताके कारण इस

तृतीयाका नाम अक्षय तृतीया है। इस तृतीयाके दिन जो कुछ

भी दान किया जाता है यह अक्षय हो जाता है और दान

देनेवास्त्र सूर्यल्लेकको प्राप्त करता है। इस तिथिको जो उपवास

करता है वह ऋद्धि-वृद्धि और श्रीसे सम्पन्न हो जाता है।

(अध्याय २१)

कक

चतुर्थी-त्रत एवं गणेशजीकी कथा तथा सामुद्रिक शाखका संक्षिप्त परिचय

सुमन्तु सुनिने कहा--राजन्‌ ! तृतीया-कल्पका वर्णन

करनेके अनन्तर अब मैं चतुर्थी-कल्पका वर्णन करता हूँ।

चतुर्थी-तिथिमें सदा निगाहार रहकर बत करना चाहिये।

ब्राह्मणको तिलका दान देकर स्व्यं भी तिका भोजन करना

चाहिये । इस प्रकार त्रत करते हुए दो वर्ष व्यतीत होनेपर

भगवान्‌ विनाय्क प्रसन्न होकर ब्रतीको अभीष्ट फल प्रदान

करते है । उसका भाग्योदय हो जाता है और वह अपार

घन-सम्पत्तिका स्वामी हो जाता है तथा परलोकमें भी अपने

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