३.२ सामवेद-संहिता
हे इद्धदेव ! गाय के दूध में मिश्रित, रस रूप में हमारे द्वारा शोधित किये गये सोमरस का आप पान करें
और प्रफुल्लित हों । संगठित रूप से किये गये कार्य में हमारे सहचर बनकर, हमें उन्नतिशील मार्ग दिखाएँ ।
आपकी बुद्धि हमारा संरक्षण करने वाली बने ॥७ ॥
२४०. त्वं ह्येहि चेरवे विदा भगं वसुत्तये ।
उद्वावृषस्व मधवन् गविष्टय उदिन्दराश्वमिष्टये ॥८ ॥
हे इन्द्रदेव हम उत्तम आचरण से युक्त होकर आपका आवाहन करते है । हे एेश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप
गाय, अश्च तथा श्रेष्ठ धन की इच्छ वाती हमारी कामनाओं की पूर्ति करें ॥८ ॥
२४१.न हि वश्चरमं च न वसिष्टः परिमंसते ।
अस्माकमद्य मरूतः सुते सचा विश्चे पिबन्तु कामिनः ॥ ९ ॥
हे मरूतो ! वसिष्ट ऋषि आप में, छोटों की भी स्तुति करते है । आज हमारे इस यज्ञ में एक साथ बैठकर
आप सभी सोमरस का पान करें ॥९ ॥
२४२. मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१० ॥
हे याजको ! इन्द्रयेव के अतिरिक्त और किसी की स्तुति करके बेकार श्रम मत करो । इस सोमयह में संगठित
रूप से बलवान् इन्धदेव की स्तुति के लिए स्तोताओं से बार-बार कहो ॥१० ॥
॥ इति त्रयोदशः खण्डः ॥
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॥ चतुर्दशः खण्डः ॥
-२४३. नकिष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम् ।
इन्द्रं न यजञर्विश्वगृर्तमृभ्वसमधृष्ट धृष्णुमोजसा ॥१ ॥
स्तुत्य, महा बलशातौ, समृद्ध. अपराजित, शत्र दमन करने वाले इन्रदेव को जो साधक यज्ञादि कर्मों से अपना
सहचर (अनुकूल) यना लेता है, उस साधक के श्रेष्ठ कर्मों की कोई समानता नहीं कर सकता ॥१ ॥
२४४.य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
सन्धाता सन्धि मघवा पुरूवसुर्निष्कर्ता विहतं पुनः ॥२ ॥
जो इन्द्रदेव गले के स्नायु ओं से रक्त निकलने पर बिना सामग्री के ही संधियों को जड़ देते हैं, ये एेश्यर्यवान्
इन्द्रदेव कटे हुए भागों को भी पुनः जोड़ देते हैं ॥२ ॥
२४५. आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥३॥
हे इन्द्र (सूर्य) देव ! सुवर्णं रथ में (बह्ययुक्त) मंत्र के प्रभाव से जुड़ जाने वाले सैकड़ों- हजाएं श्रेष्ठ घोड़े
(किरणें) सोमपान के लिए आपको ले आएँ ॥३ ॥
२४६. आ मद्दैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः ।
मा त्या के चिन्नि येमुरिन पाशिनोऽति घन्वेव ताँ इहि ॥४॥