कै सक्षम ब्रह्मपुराण +
प्रकारकी ओषधियाँ फलती, पकती एवं प्रजाके | द्वारा होती है। सूर्यके आधार ध्रुव, ध्रुवके
उपयोगे आती हैं। उन ओषधियोंसे शास्त्रदर्शी | शिशुमारचक्र तथा शिशुमारचक्रके आश्रय साक्षात्
मनुष्य प्रतिदिन विहित यज्ञोंका अनुष्ठान करके | भगवान् नारायण हैं। वे शिशुमारचक्रके हृदय-
देवताओंको तृप्त करते हैं। इस प्रकार यज्ञ, वेद, | देशमें स्थित हैं। वे ही सम्पूर्ण भूतोंके आदि,
ब्राह्मण आदि वर्ण, सम्पूर्ण देवता, पशु, भूतगण | पालक तथा सनातन प्रभु हैं। मुनिबरो! इस प्रकार
तथा स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्णं जगत्-ये सब | मैंने पृथ्वी, समुद्र आदिसे युक्त ब्रह्माण्डका वर्णन
वृष्टिके द्वारा ही धारण किये गये हैं। वृष्टि सूर्यके । | किया। अब और क्या सुनना चाहते हो?
न
तीर्थ-वर्णन
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मुनियोंने कहा-- धर्मके ज्ञाता सूतजी ! पृथ्वीपर
जो-जो पवित्र तीर्थ और मन्दिर हैं, उनका वर्णन
कीजिये। इस समय हमारे मनपें उन्हीका वर्णन
सुननेकी इच्छा है।
लोमहर्षणजी बोले--जिसके हाथ, पैर और
मन काबूमें हों तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति
हो, बह मनुष्य तीर्थक फलका भागी होता है।
पुरुषका शुद्ध मन, शुद्ध वाणी तथा वशे की हुई
इन्द्रियाँ-ये शारीरिक तीर्थ हैं, जो स्वर्गका मार्ग
सूचित करती हैं। भीतरका दूषित चित्त तीर्थल्लानसे
शुद्ध नहीं होता। जिसका अन्तःकरण दूषित है,
जो दम्भमें रुचि रखता है तथा जिसकी इन्द्रियाँ
चञ्चल हैं, उसे तीर्थ, दान, व्रत और आश्रम भी
पवित्र नहीं कर सकते। मनुष्य इन्द्रियॉकों अपने
वशमें करके जहाँ-जहाँ निवास करता है, वहाँ-
वहीँ कुरुक्षेत्र, प्रयाग और पुष्कर आदि तीर्थ वास
करने लगते हैं। द्विजवरो ! अब मैं पृथ्वीके पवित्र
तीर्थो ओर मन्दिरोंका संक्षेपसे वर्णन आरम्भ
करता हूँ, सुनो। पुष्कर, नैमिषारण्य, प्रयाग,
धर्मारण्य, धेनुक, चम्पकारण्य, सैन्धवारण्य,
मगधारण्य, दण्डकारण्य, गया, प्रभास, श्रीतीर्थ,
कनखल, भृगुतुड्र, हिरण्याक्ष, भीमारण्य, कुशस्थली,
लोहाकुल, केदार, मन्दररण्य, महाबल, कोटितीर्थ,
रूपतीर्थ, शूकर, चक्रतीर्थं, योगतीर्थ, सोमतीर्थ,
अग्निपद, पञ्चशिख, धर्मोद्धव, बन्धप्रमोचन्, गड्जाद्वार,
पञ्चकूट, मध्यकेसर, चक्रप्रभ, मतङ्ग, कुशदण्ड,
दंष्टाकुण्ड, विष्णुतीर्थ, सार्वकामिकतीर्थ, मत्स्यतिल,
ब्रह्मकुण्ड, वहिकुण्ड, सत्यपद, चतुःलोत, चतुः
श्रृक्ष, द्वादशधार, मानस, स्थूलभृज्ञ, स्थूलदण्ड,
उर्वशी, लोकपाल, मनुबर, सोमशैल, सदाप्रभ,
मेरुकुण्ड, सोमाभिषेचनतीर्थ, महास्नोत, कोटरक,
'पञ्चधार, त्रिधार, सप्तधार, एकधार, अमरकण्टक,
शालग्राम, कोटिद्रुम, बिल्खप्रभ, देवहृद, विष्णुहृद,
शङ्खप्रभ, देवकुण्ड, बज्जायुध, अग्निप्रभ, पुंनाग,
देवप्रभ, विद्याधरतीर्थ, गान्धर्वतीर्थ, मणिपूर गिरि,
पञ्चहद, पिण्डारक, मलव्य, गोप्रभाव, गोवर,
वरमूल, ल्लानदण्ड, विष्णुपद, कन्याश्रम, वायुकुण्ड,
जम्बुमार्गं, गभस्तितीर्थ, यजातिपतन, भद्रवट,
महाकालवन्, नर्पदातीर्थ, तीर्थवन्र, अर्बुद, पिङ्गतीर्थ,
वासिष्ठतीर्थ, पृथुसंगम, दौर्वासिक, पिञ्जरक,
ऋषितीर्थ, ब्रह्मतुङ्ग, वसुतीर्थ, कुमारिक, शक्रतीर्थं,
पञ्चनद, रेणुकातीर्थ, पैतामह, विमलतीर्थ, रुद्रपाद,
मणिमान्, कामाख्य, कृष्णतीर्थ, कुलिङ्गक, यजनतीर्थ,
याजनतीर्थ, ब्रह्मवालुक पुष्पन्यास, पुण्डरीक, मणिपूर,
दीर्घसत्र, हयपद, अनशनतीर्थ, गड्जोद्धेद, शिवोद्धेद,