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* अर्जयस्व इषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम्‌ „

| संक्षिप्त पदापुराण

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और पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा--

'आपलोग आरमसे यहीं रहे ।' तत्पश्चात्‌ जटा और

मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी

अज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे । उनमें कुछ महात्मा

वालखिल्य थे तथा कुछ स््ेग संप्रख्यान (एक समयके

लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार

करनेवाले) थे। वे नाना प्रकारके नियमॉमें संलग्न तथा

वेदीपर शायन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोने

पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे

अत्यन्त रूपवान्‌ हो गये। फिर एक दूसरेकी ओर

देखकर सोचने रूगो--“यह कैसी बात है ? इस तीर्थमें

मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !'

ऐसा विचार कर तपस्वियोनि उसका नाम “मुखदर्दानि

तीर्थ” रख दिया। तत्पश्चात्‌ वे नहाकर अपने-अपने

नियमो लग गये । उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी ।

नरश्रेष्ठ ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त

शोभा पाने कगे । उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना भ्रकारकी

क्रियाएँ सम्पन्न कीं । तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके

ये । वे सोचने लगे कि "यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है ।' ऐसा

विचार करके उन द्विजातियोनि उस सरोवरका श्रेष्ठ

पुष्कर" नाम रखा ।

तदनन्तर ब्राह्मणको दानके रूपमे नाना प्रकारके

पात्र देनेके पश्चात्‌ वे सभी द्विज वहा प्राची सरस्वतीका

नाम सुनकर उसमे खाच करनेकी इच्छासे गये । तीथॉमें

श्रेष्ठ सरस्वतीके तरपर -ब्रहुत-से द्विज निवास करते ये ।

नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे । वह

तीर्थ सभी प्राणियोको मनोरम जान पड़ता था । अनेकों

ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे । उन ऋषियोंमेंसे कोई

वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर । कुछ

ल्मरेग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर

रहनेवाले थे।

सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शाब्द

गूँजता रहता था । मृगेकि सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते

थे । अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी

अधिक जोधा हो रही थी । पुष्कर तीर्थम सरस्वती नदी

सुप्रभा, कञ्चना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे

प्रसिद्ध पाँच धाराओंमें प्रवाहित होती हैं! भूतलपर

वर्तमान ब्रह्माजीकी सभामें--उनके विस्तृत यज्ञमण्डपमे

जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग

पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियर्मोका पालन करते

हुए जब यज्ञ-कार्यके सम्पादनमे लग गये और पितामह

ब्रह्मजी यज्ञकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण

भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवानका यजन

आरम्भ हुआ । राजेन्दर ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास

उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती

थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण

करते ही वहाँ आ जाते थे । देव, गन्धर्व गान करने लगे।

अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य वाजे बज उठे । उस यज्ञकी

समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो

वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ। पुष्कर

तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस

समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे

आवाहन किया । पितामहका सम्मान करती हुई

वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोको

बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोमे श्रेष्ठ सरस्वती

बह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये

ही पुष्कर तीर्थमें प्रकर हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके

उत्तर-तटपर अपने द्ारीरका परित्याग करता है तथा प्राची

सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म-मृत्युको

नहीं प्राप्त होता । सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेबालेको

अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूर फल मिलता है। जो वहाँ

नियम और उपवासके द्वारा अपने इारीरको सुखाता है,

केवर जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या

करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका

पृथक्‌-पृथक्‌ पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके

परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थमें

तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान

मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाल है--यह बात

पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीने कही थी । जो मनुष्य

उस तीर्थे श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुछकी इक्कीस

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