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१४८ * दधिष पिपरा ५

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आज्ञासे उसके सुवर्ण-जैसे दारीरको जाते हैं, उसी समय सदा साय॑संध्याका उदय

जलाकर >मण्डल्में

जब लाल कमलूके समान सूर्य अस्त हो कारण उसने स्वयं यह त्रिभुयन-विख्यात

मेथातिधिके उस आश्रमे धीरे-धीरे बड़ी

साथ बड़ी झोंभा पाने छगी। उससे दाक्ति

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