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अंबकौणी आदि' आच्छर तथा अवैष्णव हैं, वे श्राद्धके
योग्य नहीं हैं।
श्राद्धके एक दिन पूर्व ब्राह्मणोंकों नि्मन्त्रित करना
चाहिये। तिमन्तित ब्राह्यर्णोको उस्र दिन संयम रखना
चाहिये। श्राद्ध-दिवसके पूर्वाह्चकालमें उपस्थित उन ब्राह्मणोंको
आचमन कराकर आसनॉपर बैठा दे। विश्वेदेव अथवा
आभ्युदयिक श्राद्धके लिये दो ब्राह्मण तथा पितृपात्रके
स्थानपर यथाशक्ति ब्राह्मणको यैटाना चाहिये अथवा इनमें
दो ब्राह्म्णोको विश्वेदेवपात्रके आसनपर पूर्वाभिमुख तथा
तन ब्राह्मणोंकों पितृफात्रके आसनपर उत्तराभिमुख अथवा
दोनों (देव-पितर)-के लिये एक-एक ब्राह्मण आसनपर
मैखाना चाहिये। इसी प्रकार मातामहादिके श्राद्धमें व्यवस्था
करनी चाहिये और मातामह-श्राद्धवें विश्वेदेव-सम्बन्धी कृत्य
अलग-अलग या एक साथ किया जा सकता है।
इसके बाद ब्राह्मणको हस्त-परक्षालनकै लिये जल
( हस्तार्घ्यं ) ओौर आसनके लिये कुज प्रदानकर् उन्हींकी
अनुज्ञासे “विश्वे देवास०' इस मचसे विश्वेदेवका आवाहन
करके भोजन-पात्रमें यव विकर्णं करे। तदनन्तर पवित्रकयुक्त
अर्थ्यपात्रमें “शं नो देवी>' इस मन्त्रसे उसमे जल तथा
'यवोउस्ति०' मन्त्रद्धारा यव डालकर “या दिव्या०' मचसे
ज्राह्मणके हाथमें अध्योंदक प्रदानकर गन्ध, दीपक, माला,
हार आदि आभूषण तथा वस्व दात करे।
तत्पश्चात् अपसव्य होकर फितरोंको अप्रदक्षिण (वाम)-
क्रमते स्थान (कुशरूपी आसन) प्रदान करे और (आसनके
लिये मोटकरूप) द्विगुणित कुश देकर 'उशन्तस्त्वा०'
प्रखसे उतर पितरोका आवाहन करे। उसके बाद पितृ-
स्थानपर विराजमान ब्राह्मणकी आज्ञा लेकर "आयन्तु नः
पितर:०' इस मनत्रका जप करें।
पितृकार्ये यवके स्थानपर तिलोंका प्रयोग करना
चाहिये और तिलके साथ उन पितृगणोंको पूर्ववत् अध्यादि
प्रदान करे। उन अर्यो (अर्ध्यपात्रों )-के संस्रव ( ब्राह्मणके
हाथमें दिये गये अर््योदकका नीचे गिरा हुआ जल)-को
पितृपात्रमें रखकर और दक्षिणाग्र कुशस्तम्बकों धूमिपर
रखकर उसके ऊपर ' पितृभ्यः स्थानपसि० " इस मन्त्रके द्वारा
* पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् *
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[ संक्षिप्त गरुडपुराणाडु
उक्त अर्घ्यपात्र (पितरोंके खामभागपमें) भूषिपर उलटकर
रख दे। उसके कद घृत-सम्मिशत्रित अन्नको अगिनर्पे प्रदान
करनेके लिये आचार्यसे श्राद्धकर्ता अग्नैकरणकी आज्ञा
प्राप्त करे। जब आचार्य “ऐसा ही करो" यह कह दें तो उन्हें
पितृयज्ञके समान हौ उस अग्निमे युक्त घृताक्त हव्यका हवन
करके आहुति करनेसे शेष बचे हुए अन्नको समाहित मनसे
पितरोंके भोजन-पात्रोंमें रख दे। पित्त्के भोजन-पात्रोके
रूपमें यथाशक्ति चाँदीके पात्रोंका प्रयोग करना चाहिये।
"पृथिवी ते पात्रं०' मनसे पात्रको अभिमन्त्रित करे। ' इदं
विष्णुः" मनका पाठ करे और ब्राह्मणके अंगुष्ठको पितरेक
लिये परिवेशित अने प्रवेशित करे । व्याहतियेकि सहित
गायत्री" एवं 'मधुवाता०' मन््रका जप करके सुखपूर्वक
भोजन करें, इस प्रकार ब्राह्मणोंसे निवेदन करे और ब्राह्मण
मौन होकर भोजन करें। श्राद्धकर्ता क्रोधादिसे रहित होकर
बड़े हो श्रद्धा-भावसे उन ब्राह्मणोंको बिना शीघ्रता किये
उनका अभीष्ट अन्न तथा हृविष्यान्न उन्हें प्रदान करे और
ब्राह्मणक तृप्तितक ' पुरुषसूक्त' तथा “पवमानसूक्त' आदिका
जप करता रहे। उसके बाद पुत्र: पहलेके समान 'मधुवाता०'
मन्त्रका पाठ करे और शेषाश्नको लेकर उन संतृप्त ग्राह्मणोंके
द्वारा "हम तृष हो गये', इस प्रकार कहनेपर उन ब्राह्मणोंकी
अनुज्ञासे श्राद्धकर्ता दक्षिणाभिमुख होकर तिलसहित उस
शेषान्नको ब्राह्मणोकि उच्छिष्ट पात्रोंके समीपमें ही भूमिपर
जलके साथ रख दे और प्रत्येक ब्राह्मणको मुख-प्रश्नालनके
लिये अलग-अलग जल प्रदान करे।
उच्छिष्टके समीपमें पितर आदिके लिये पिण्डदान
करके उसी प्रकार मातापहादिके लिये भी पिण्डदान करे।
उसके बाद ब्राह्मणोंकों आचमन कराये। तदनन्तर आह्यणोंके
'स्वस्ति' ऐसा कहतेपर श्राद्धकर्ता 'अक्षग्यमस्तु' कहकर
ब्राह्मणोंके हाथमें जल प्रदानकर यथासामर्थ्य दक्षिणा दे ओर
"स्वधां वाचयिष्ये ' ऐसा कहे। 'वाच्यताम्' के द्वारा ब्राह्मण
श्राद्धकर्ताकों आज्ञा प्रदान करें। उनकी अनुज्ञा प्रासकर
श्राद्धकर्ता पितृजनोंके लिये “स्वधा' इस वाक्यका प्रयोग
करे। पुनः उन ब्राह्मणोंके द्वारा “स्वथा' ऐसा कह देनेके
पश्चात् श्राद्धकर्ता पृथ्वीपर जलसिज्ञन करे ।
१- अवकौर्नी- अ्रह्मचर्याअमर्सें रहते हुए जिप्तका चौर्य स्खलित हो गया है।
२-आदिसे कुण्ड, गोलक, कुनखौ एवं काले दौतवाले ब्राह्मण समझे जाने चाहिये। पति जीवित रहते हुए दूसो पुरुषसे उत्पन्न कुण्ड एवं
पिके जिधनके बाद दूसो पुरुषे उत्पन्न गोलक होता है।