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१५२ । [ ब्रह्माण्ड पुराण

संपूज्य पूजकविधौ शंभोस्तव च संगम: ॥६०

त्वया पूजयितु युक्त: स एवं भुवने रतः ।

संपूजको5पि तस्य त्वं योग्यो नात्र विचारणा ॥ ६१५

पितामहस्य लोकानां ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।

शिरश्छित्त्वा पुनः शम्भुब्रह्महत्यामवाप्तवान्‌ ।(६२

ब्रह्महत्याभिभूतेन प्रायस्त्वं शंभुना द्विज ।

उपदिष्टोऽसि तत्कतु नोचेदेव॑ कथं कृथाः ॥॥६३

मैः यह सब कुछ मानता हैं तथापि आपका ऐसा निश्चय कि भगवान्‌

शङ्कुर का वर्शन प्राप्र करूगा यह सब व्यथं है । कहाँ तो प्रथम ज्ञानी हैं--

कहाँ भगवान्‌ देवों कै देव शम्भु हैं तथा कहाँ उनको प्राप्त करने के लिए यह

तुम्हारी तपस्या है ? अर्थात्‌ भगवान्‌ शम्भु के प्रत्यक्ष करने के लिए कहीं

अत्यधिक ज्ञान ओर विशेष तपस्या होनी चाहिए क्‍योंकि वे साधारण साघंन

से प्राप्त होने बाले नहीं हैं। आपकी साधना सर्वथा अकिड्नचित्कर हैं ।५७। हे

मूढ! इस समय में इस तप के द्वारा आप क्‍यों क्लेजित हो रहे हैँ? यहं

निश्चय है कि इस तरह से मिथ्या प्रवृत्ति वाले आपसे भगवान्‌ शब्छुर कभी

भी सन्तु नहीं होगे ।५८। हे सुदुर्मते ! ! शम्भु तो लोक के आचरण के सर्वेथा

विरद्ध हैँ । उनकी विशेष तुष्टि के लिए तुमको' छोड़कर कौन अबुद्ध ऐसी

प्रकृष्ट तपस्या किया करता हैं अर्थात्‌ ऐसा कोई भी नहीं करता है ।५६। और

अथवा मैं आज गया और यह बिना ही संशय के युक्त है। पूज्य और पूजन

की विधिं में भगवान्‌ शम्भु का और आपका सङ्गम है ।६०। आपके द्वारा

उनकी पूजा करना युक्त है | वे ही समस्त भुवन में रत हैं। उनकी भली

भाँति पूजा करने वाले आप भी योग्य हैं--इसमें कोई संशय नहीं है ।६१।

समस्त लोकों के पिता यह परमेष्ठी ब्रह्माजी के शिर का छेदन करके शम्भु

ने फिर ब्रह्म हत्या प्राप्त की थी ।६२। हे द्विज ! ब्रह्महत्या से अभिभूत शम्भु

ने प्रायः आपको उपदेश दिया है कि ऐसा करे । यदि ऐसा नहीं है तो आप

इस रीति से कंसे कर रहे हैं ।६३।

तादात्म्यगुणसंयोगाग्मन्ये रुद्रस्य तेड्धुना ।

तप सिद्धिरनुभ्राप्ता कालेनात्पीयसा मुने ॥६४

प्रायोऽच मातरं हत्वा सर्वेलोकिनिराकृत: ।

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