Home
← पिछला
अगला →

१८ ऋग्वेद संहिता भाय-१

शक्ति पुत्र, वज्ञथारी इन्द्रदेव ने शत्र के संहार के लिए आगे बढ़कर जो नाप कमाया, उस प्रशंसनीय "मघवा"

नाम को उन्होंने युगो तक मनुष्यों के लिए धारण किया ॥४ ॥

११३४. तदस्येदं पश्यता भूरि पुष्टं श्रदिन्द्रस्य धत्तन वीर्याय ।

स गा अविन्दत्सो अविन्ददश्वान्त्स ओषधीः सो अपः स वनानि ॥५॥

उन इनद्रदेव ने अपनी सामर्थ्य से गौओं, अश्वो, ओषधिर्यो, जलो और वनों को प्राप्त किया । अतः

हे मनुष्यो ! आप इनदरदेव के इन अत्यन्त पराक्रमपूर्ण कार्यों को देखें और उनकी अद्भुत शक्ति के प्रति

आत्मविश्वास जगायें ॥५ ॥

११३५. भूरिकर्मणे वृषभाय वृष्णे सत्यशुष्माय सुनवाम सोमम्‌।

य आदृत्या परिपन्थीव शूरोऽयज्वनो विभजन्नेति वेदः ॥६ ॥

जो शक्तिशाली इन्द्रदेव लालची दुष्टौ, लुटेरों द्वारा एकत्रित किये गये घनों का तथा यज्ञीय कर्मों से रहित

राक्षसौ वृत्ति से युक्त दैत्यो के धनों का हस्तान्तरण करके ज्ञानियों को सम्मानित करते हैं, अर्थात्‌ दुष्ट जनों से प्राप्त

धन को श्रेष्ठ जनों में वितरित कर देते हैं, ऐसे श्रेष्ठ कर्म सम्पन्न करने वाले महान्‌ दाता और सत्यबल सम्पन्न

इन्द्रदेव के लिए हम सोम तैयार करें ॥६ ॥

११३६. तदिन्द्र प्रव वीर्यं चकर्थ यत्ससन्तं बज्रेणाबोधयो5 हिम्‌ ।

अनु त्वा पलीईपितं वयश्च विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा ॥७ ॥

है इनद्रदेव ! आपने सोते हुए वृत्र को वज्र के प्रहार से जगाया अथीत्‌ पराभूत किया । वस्तुतः यह

आपका परमशौर्य है। ऐसे में आपको आनन्दित देखकर सभी देवताओं ने अपनी पतियों के साथ अतिहर्ष

अनुभव किया ॥७ ॥

११३७. शुष्णं पिप्रुं कुयवं वृत्रमिन्द्र यदावधीर्वि पुर: शष्बरस्य ।

तत्रो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥८ ॥

हे इन्द्रदेव | जब आपने शुष्ण, पिपु, कुयव और वृत्र का हनन किया और शम्बरासुर के गढ़ों को धूलिधूसरित

किया (तोड़ा) तो मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु. पृथिवी और दिव्यलोक हमारे उत्साह को भौ संवर्धितं करे ॥८ ॥

[ सूक्त - १०४]

[ऋषि- कुत्स आङ्गिरस । देवता-इन्द्र । छमद- त्रिष्टुप्‌ ।]

११३८. योनिष्ट इन्द्र निषदे अकारि तमा नि षीद स्वानो नार्वा ।

विपुच्या वयोऽवसायाश्चान्दोषा वस्तोर्वहीयसः प्रपित्वे ॥९॥

हे इन््रदेव ! हमने आपके लिए श्रेष्ठ स्थान निर्धारित किया है । रथ वाहक अश्वो को उनके बन्धनों से मुक्त

करके, हिनहिनाते हुए धोड़ों के साथ रात-दिन चलकर यज्ञस्थल में निर्धारित आसन पर विराजमान हों ॥१ ॥

११३९. ओ त्ये नर इन्द्रमूतये गुर्नू चित्तान्सद्यो अध्वनो जगम्यात्‌ ।

देवासो मन्युं दासस्य श्चम्नन्ते न आ वक्न्त्सुविताय वर्णम्‌ ॥२ ॥

सुरक्षा की भावना से प्रेरित होकर अपने समीप आये हुए मनुष्यो को इन्द्रदेव ने शीघ्र ही श्रेष्ठ मार्गदर्शन

दिया देवशक्तियां दुष्कर्मियों कौ क्रोध भावना को समाप्त करें । वे यज्गीय कार्य के निमित्त चरण करने योग्य

← पिछला
अगला →