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ध्यान करके उसपर देवमूर्ति सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ | बिन्दुरूप शिवसे प्रकट होनेवाले अमृतकी भावनासे

शिवका आवाहन करे। उस शिवमूर्तिमे शिवस्वरूप | युक्त जल एवं अक्षत आदिके द्वारा हृदय-मन्त्र

आत्माकों देखे और फिर आसन, पादुकाद्वय तथा नौ

पीठशक्ति --इन बारहोंका ध्यान करे। फिर शक्तिमन्त्रके

अन्तमें 'बौषद्‌” लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक

पूर्वोक्त आत्ममूर्तिकों दिव्य अमृतसे आप्लावित

करके उसमें सकलीकरण करे। हदयसे लेकर

हस्त-पर्यन्त अड्जोंमें तथा कनिष्ठिका आदि अँगुलियोंमें

इदय (नमः) मन्त्रोंका जो न्यास है, इसीको

“*सकलीकरण' माना गया है॥ २५--३०॥

तत्पश्चात्‌ “हं फट्‌'--इस मन्त्रसे प्राकारकी | अमृतीकरण

भावनाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था करके उसके

बाहर, नीचे ओर ऊपर भी भावनात्मक शक्तिजालका

विस्तार करे। इसके बाद महामुद्राका" प्रदर्शन

करे। तत्पश्चात्‌ पूरक प्राणायामके द्वारा अपने

हृदय- कमलम विराजमान शिवका ध्यान करके

भावमय पुष्पोंद्वारा उनके पैरसे लेकर सिरतकके

अङ्गे पूजन करे। वे भावमय पुष्प आनन्दामृतमय

मकरन्दसे परिपूर्ण होने चाहिये। फिर शिव-

मन्त्रोंद्वारा नाभिकुण्डमें स्थित शिवस्वरूप अग्निको

तृप्त करें। वही शिवानल ललाटमें बिन्दुरूपसे

स्थित है; उसका विग्रह मङ्गलमय है--इस प्रकार

चिन्तन करे ॥ ३१--३३॥

स्वर्ण, रजत एवं ताम्रपात्रोमेंसे किसी एक

पात्रको अर्घ्यके लिये लेकर उसे अस्त्रबीज

(फट्‌ )-के उच्चारणपूर्वक जलसे धोये। फिर

(नमः) -के उच्चारणपूर्वक उसे भर दे। फिर हृदय,

सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र-इन छः

अङ्गोद्ारा (अथवा इनके बीज-मरतरदरारा) उस

अर्घ्यपात्रका पूजन करके उसे देवता-सम्बन्धी

मूलमन््रसे अभिमन्त्रित करे। फिर अस्त्रमन्त्र

(फद)-से उसकी रक्षा करके कवच-बीज (हुम्‌) -

के द्वारा उसे अवगुण्ठित कर दे। इस प्रकार अष्टाङ्ग

अर््यकी रचना करके, धेनुमुद्राके द्वारा उसका

करके उस जलको सब ओर सींचे।

अपने मस्तकपर भी उस जलकी बूँदोंसे अभिषेक

करे। वहाँ रखी हुई पूजा-सामग्रीका भी अस्त्र-

बीजके उच्चारणपूर्वक उक्त जलसे प्रोक्षण करे ।

तदनन्तर हदयबीजसे अभिमन्त्रित करके "हुम्‌"

बीजसे पिण्डों (अथवा मत्स्यमुद्राः) -द्वारा उसे

आवेष्टित या आच्छादित करे ॥ ३४--३७॥

इसके बाद अमृताः (धेनुमुद्रा) -के लिये

धेनुमुद्राका प्रदर्शन करके अपने आसनपर पुष्प

अर्पित करे (अथवा देवताके निज आसनपर पुष्प

चावे) । तत्पश्चात्‌ पूजक अपने मस्तके तिलक

लगाकर मूलमन्त्रके द्वारा आराध्यदेवको पुष्प

अर्पित करे। स्नान, देवपूजन, होम, भोजन,

यज्ञानुष्ठान, योग, साधन तथा आवश्यक जपके

समय धीरवुद्धि साधकको सदा मौन रहना

चाहिये प्रणवका नाद-पर्यन्त उच्चारण करके

जि पिक णि पो

१. भ प्रसारितकर्गुलो । महामुदरेयमुदिता परमीकरणी बुधैः ॥ ( वामके धर तन्त्रान्तर्गत मुद्रानिघण्दु ३९-३२)

- दोनों परस्पर ग्रथित कर हाथोंको अन्य सब अँगुलियॉको फैलाये रखना - यह 'महामुद्रा' कही गयी है। इसका

२. खायें हाथके पृष्ठभागपर दाहिने हाथकी हथेली रखे और दोनों अँगूठोंको फैलाये रखे। यही “मत्स्थमुद्रा' है।

घरमौकरणपें प्रयोग होता है।

३. अमृतीकरणकी विधि यह है--

“चं " इस अमृत-जऔौजका उच्चारण करके धेनुमुद्राको दिखावे । धेनुमुद्राका लक्षण इस प्रकार है--

। संयोज्य तर्जनीं दक्षां वाममध्यमया तथा

दक्षमध्यमया वामौ तर्जनी च नियोजयेत्‌ । वामयानामया दक्षकनिष्ठां च नियोजयेत्‌ #

दक्षयानामया वामौ कविष्ठां च नियोजयेत्‌ ।

चैष धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ॥

विहिताधोमुखी

*बावें हाथकी अँगुलियोके बचे दाहिते हाथकी अँगुलियोंको संयुक्त करके दाहिनी तर्जनीको बायीं मध्यमासे जोड़े। दाहिने हाथकौ

मध्यमासे जायें हाथकी तर्जनीको मिलाबे। फिर चाये हाधकी अनाभिकामे दाहिते हाथकी कनिश्चिका और दाहिने हाथकी अनामिकासे

बायें हाथकी कनिश्चिकाकों संयुक्त करे । तत्पश्चात्‌ इन सबका गुल

४. स्नाने देवार्चने होमे भोजने खगयोगयोः ।

नोचेकौ ओर करे - वही ' धेनुमुद्रा कही गयी है ।'

जपे घोर: सदा वाचवमो भवेत्‌ ॥ (अग्नि० ७४। ३९)

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