१२८
3,
दिये । तत्पश्चात् वे सब पृथ्वीपर घुटने टेककर बैठ गये
और स्तोत्र पढ़कर वरदायक देवता षडाननकी स्तुति
करने गे । स्तुति पूर्ण होनेके पश्चात् कुमारने कहां--
'देबताओ ! आपल्ोग शान्त होकर बताइये, मैं आपकी
कौन-सी इच्छा पूरी करूँ? यदि आपके मनमे
चिरकालसे कोई असाध्य कार्य करनेकी भी इच्छा हो
तो कहिये।'
देवता बोले--कुमार ! तारक नामसे प्रसिद्ध एक
दैत्वोका राजा है, जो सम्पूर्ण देवकुलका अन्त कर रहा
है। वह बलवान्, अजेय, तीखे स्वभाववाला, दुराचारी
और अत्यन्त क्रोधी है । सबका नाश करनेवाला और
दुर्दमनीय है । अतः आप उस दैत्यका वध कीजिये । यही
एक कार्य शेष रह गया है, जो हमलोगोको बहुत ही
भयभीत कर रहा है।
देवताओंके यों कहनेपर कुमारने "तथास्तु ककर
उनकी आज्ञा स्वीकार की और जगत्के लिये कष्टकरूप
तारकासुरका वध करनेके ल्व वे देवताओकि पीछे-पीछे
चले । उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति कर रहे थे ।
तदनन्तर कुमारका आश्रय मिल जानेके कारण इन्द्रने
दानवराज तारकके पास अपना दूत भेजा । वहाँ जाकर
दूतने उस भयानक आकृतिवाले दैत्यसे निर्भयतापूर्वक
कहा--'तारकासुर ! देवराज इन्द्रने तुम्हें यह कहल्लाया
है कि देवता तुमसे युद्ध करने आ रहे हैं, तुम अपनी
शृक्तिभर प्राण बचानेकी चेष्टा करो ।' यों कहकर जब दूत
चला गया, तब दानवने सोचा, हो-न-हो, इनद्रको कोई
आश्रय अवश्य मिल गया है, अन्यथा वे ऐसी बात नहीं
कह सकते ये ।' इन्द्र मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं।
वह सोचने लगा, 'ऐसा कौन अपूर्व योद्धा होगा, जिसे
मैंने अबतक परास्त नहीं किया है।' तारकासुर इसी
चिन्ताम व्याकुल हो रहा था, इतनेमें ही उसे सिद्ध-
बन्दियोंके द्वारा गाया जाता हुआ किसीका यज्ञोगान
सुनायी पड़ा, जो हदयको दुःखद प्रतीत होता था, जिसके
अक्षर कड़वे जान पड़ते थे।
खन्दीगण कह रहे थे-- महासेन ¦ आपकी जय
हो। आपके मस्तकंकी चञ्चल शिख्वाएँ बड़ी सुन्दर
» अर्चयस्व हषीकेदौ यदीच्छसि परं पदम् *
7.
दिखायी देती दै, श्रीविग्रहकी कान्ति नूतन एवं निर्मल
कमलदलके समान मनोरम जान पड़ती है। आप
दैत्यवदाके लिये दुःसह दावानलके समान है । प्रभो !
विदाख ! आपकी जय हो । तीनों ल्म्रेकोंके शोककों
दामन करनेवाले सात दिनकी अवस्थाके वाक !
आपकी जय हो । सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाका भार वहन
करनेवाले दैत्यविनाशक स्कन्द ! आपकी जय हौ ।
देववन्दियोंद्वार उच्चारित यह विजयघोष सुनकर
तारकासुरको ऋहशजीके वचनका स्मरण हो आया ।
बालकके हाथसे वध होनेकी बात याद करके वह
धर्मविध्वंसी दैत्य शोकाकुल दयसे अपने महलके
बाहर निकल । उस समय बहूत-से वीर उसके पीछे-
पीछे चल रहे थे । कालनेमि आदि दैत्य भी थर्रा उदे ।
उनका हदय भयभीत हो गया । वे अपनी-अपनी सेनामे
खड़े होकर व्यग्रताके कारण चकित हो रहे थे।
तारकासुरने कुमारको सामने देखकर कहा--' बालक !
तू क्यों युद्ध करना चाहता है ? जा, गेंद छेकर खेल।
तेरे ऊपर जो यह महान् युद्धकी विभीषिका तपरदी गयी
है, यह तेरे साथ बड़ा अन्याय किया गया है। तू अभी
निरा बच्चा है, इसीलिये तेरी बुद्धि इतनी अल्प समझ
रखनेवाली है।'
कुमार बोक्ते- तारक ! सुनो, यहाँ [अधिक
बुद्धि लेकर] शास्तरार्थ नहीं करना है। भयंकर संग्राममें
जास्त्रेके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है [बुद्धिके द्वारा
नहीं] | तुम मुझे शिशु समझकर मेरी अवहेलना न
करो । साँपका नन्हा-सा बच्चा भी मौतका कष्ट देनेवाला
होता है। [प्रभातकालके] बाल-सूर्यकी ओर देखना भी
कठिन होता है। इसी प्रकार मैं बालक होनेपर भी दुर्जय
हूँ---मुझे परास्त करना कठिन है दैत्य ! क्या थोड़े
अक्षरोंबाले मन्त्रमें अद्भुत शक्ति नहीं देखी जाती ?
कुमारकी यह बात समाप्त होते ही दैत्यने उनके
ऊपर मुद्ररका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने अमोघ
केजवाले चक्रके द्वारा उस भयंकर अस्क्को नष्ट कर
दिया ! तब दैत्यराजने ल्ेहेका भिन्दिपाल चल्त्रया, किन्तु
कार्तिकियने उसको अपने हाथसे पकड़ लिया। इसके