९४८ * संक्षिप्त ब्रह्मपुराण «
क्षत्रियधर्मका त्यागी है । अतः यह इस देशका | अनुसार तपस्या करते रहो । इससे तुम्हारे अभीष्टकी
त्याग कर दे।' महाराजका यह आदेश सुनकर | सिद्धि होगी।
अमात्योंने राजकुमारको तुरंत देशनिकाला दे | मुनिका यह वचन सुनकर भगीरथने उन्हें
दिया। असमज्ञा वनम चला गया। अब राजा | प्रणाम किया और कैलासपर्वतकी यात्रा की । वहाँ
सगर चिन्ता करने लगे कि "हमारे सब पुत्र | पहुँचकर पवित्र हो बालक भगीरथने तपस्याका
ब्राह्मणके शापसे रसातलमें नष्ट हो गये । एक | निश्चय किया और भगवान् शंकरको सम्बोधित
बचा था, वंह भी वनमें चला गया। इस समय | करके इस प्रकार कहा-“प्रभो! मैं बालक हूँ,
मेरी क्या गति होगी?! मेरी बुद्धि भी बालककौ ही है ओर आप भी
असमज्ञाके एक पुत्रे था, जो अंशुमान् नामसे | अपने मस्तकपर बाल चनद्रमाको धारण करते है ।
विख्यात हुआ। यद्यपि अंशुमान् अभी बालक था | मैं कुछ भी नहीं जानता । आप मेरे इस अनजानपनसे
तो भी राजाने उसे बुलाकर अपना कार्य बतलाया । | ही प्रसन्न होइये। अमरेश्वर! जो लोग वाणीसे
अंशुमान्ने भगवान् कपिलकी आराधना कौ और | मनसे ओर क्रियासे कभी मेरा उपकार करते हैं
घोड़ा ले आकर राजा सगरको दे दिया । इससे वह | तथा हितसाधनमें संलग्न रहते हैं, उनका कल्याण
यज्ञ पूर्ण हुआ। अंशुमानके तेजस्वी पुत्रका नाम | करनेके लिये मैं उमासहित आपको प्रणाम करता
दिलीप था। दिलीपके पुत्र परम बुद्धिमान् भगीरथ | हूँ। आप देवता आदिके लिये भी पूज्य है । जिन
हुए। भगीरथने जब अपने समस्त पितामहोंकी ! पूर्वजोंने मुझे अपने सगोत्र ओर समानधमकि
दर्गतिका हाल सुना, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ। | रूपमे उत्पन्न किया और पाल-पोसकर बड़ा
उन्होंने नृपश्रेष्ठ सगरसे विनयपूर्वक पूछा--' महाराज! | बनाया, भगवान् शिव उनका अभीष्ट मनोरथ पूर्ण
उन सबका उद्धार कैसे होगा?" राजान उत्तर | करे । मै बालचनद्रका मुकुट धारण करनेवाले
दिवा-' बेटा} यह तो भगवान् कपिल ही जानते | भगवान् शंकरको नित्य प्रणाम करता हूँ।'
है ।' यह सुनकर बालक भगीरथ रसातलमें गये | भगीरथके यों कहते ही भगवान् शिव उनके
और कपिलको नमस्कार करके अपना सब | सामने प्रकर हो गये ओर बोले-' महामते! तुम
मनोरथ उन्हें कह सुनाया। कपिल मुनि बहुत | निर्भय होकर कोई चर माँगो। जो वस्तु देवताओकि
देरतक ध्यान करके बोले-' राजन्! तुम तपस्याद्वारा | लिये भी सुलभ नहीं है, बह भी मैं तुम्हें निश्चय
भगवान् शंकरकौ आराधना करो और, उनकी | ही दे दूँगा।! यह आश्वासन पाकर भगीरथने
जटामें स्थित गङ्गाके जलसे अपने पितरोंकी | महादेवजीको प्रणाम किया और प्रसन्न होकर
भस्मको आप्लावित करो। इससे तुम तो कृतार्थं | कहा-' देवेश्वर ! आपकी जटामें जो सरिताओंमें
होगे ही, तुम्हारे पितर भी कृतकृत्य हो जायँगे।' | श्रेष्ठ गङ्गाजौ विराजमान हैं, उन्हें ही मेरे पितरोंका
यह सुनकर भगीरथने कहा-' बहुत अच्छा, मैं | उद्धार करनेके लिये दे दीजिये। इससे मुझे सब
ऐसा ही करूँगा। मुनिश्रेष्ठ ! बताइये, मैं कहाँ जाऊँ | कुछ मिल जायगा ।' तब महेश्वरने हँसकर
और कौन-सा कार्य करूँ?” | कहा--बेटा! मैंने तुम्हें गड़ा दे दी। अब तुम
कपिलजी बोले--नरज्रेष् कैलासपर्वतपर जाकर | उनकी स्तुति करो।' महादेवजीका वचन सुनकर
महादेवजीकौ स्तुति करो और अपनी शक्तिके भगीरथने गङ्गाजौकी प्राप्तिके लिये भारी तपस्या