१३.४ सामवेद-संहिता
१४५९. प्रभङ्गी शूरो मघवा तुवीमघः सम्मिश्लो वीर्याय कम्।
उभा ते बाहू वृषणा शतक्रतो नि या व्रं मिमिक्षतुः ॥७ ॥
सामर्थ्यवान् इद्धदेव ! आप अपने पराक्रम से शत्रुओं की सामर्थ्य को चूर-चूर करने वाले है । आप सब
में व्यापक और ऐश्वर्यवान् हैं । हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! आपकी दोनों भुजाएँ जो वज्र को धारण करती हैं, विशिष्ट
सामर्थ्य से युक्त हैं ॥७ ॥
॥इति तृतीयः खण्ड: ॥
॥ चतुर्थः खण्डः ॥
१४६०. जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानवः । सरस्वन्तं हवामहे ॥९ ॥
स्री-पुत्र आदि की कामना करते हुए, यज्ञ-दानादि श्रेष्ठ करमो में अग्रणी हम याजकगण माँ सरस्वती का
आवाहन करते हैं ॥१ ॥ ,
१४६१. उत नः प्रिया प्रियासु सप्तस्वसा सुजुष्टा । सरस्वती स्तोम्या भूत् ॥२॥
परम प्रिय गायत्री आदि सातो छन्द् और गंगा आदि सरिताएँ जिन देवी सरस्वती की बहिने हैं, वे देवी
सरस्वती हमारे लिए स्तुत्य हैं ॥२ ॥
९४६२. तत्सवितुवरिण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥३ ॥
जो हमारी बुद्धयो को स्यार्ग की ओर प्रेरित करते है, उन सविता देवता के वरण करने योग्य तेज को हष
धारण करते है ॥३ ॥
१४६३. सोमानां स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य ओशिजः ॥४॥
हे ब्रह्मणस्पते ! (ज्ञानपते !) सोमाभिषव करने वाले हमे, उसी प्रकार यशस्वी और ज्ञान-सम्पन्न बनाएँ, जिस
प्रकार (पूर्वकाल में) उशिज पुत्र कक्षीवान् को बनाया था ॥४॥
१४६४. अग्न आयूंषि पवस आसुवोर्जमिषं च नः । आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥५॥
हे अग्निदेव ! विभिन्न प्रकार के पोषक तत्त्वों के साथ आप हमें बल और दीर्घायुष्य प्रदान करें । दुष्टों को
हमारे पास से दूर करें ॥५ ॥
१४६५. ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य । पहि वां कषत्रं देवेषु ॥६ ॥
देवों में प्रशंसनीय, क्षात्र बल से सम्पन्न हे पित्र वरुण देव ! आप हमें धरती ओर आकाश का समस्त वैभव
प्रदान करें ॥६ ॥
१४६६. ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धेति ॥७ ॥
सत्य से सत्य का पालन करने वाले अभीष्ट बल को प्राप्त करते है । द्रोह न करने वाले मित्र ओर वरुण देव
अपनी सामर्थ्य से वृद्धि पाते हैं ॥७ ॥ ॥
१४६७, वृष्टिद्यावा रीत्यापेषस्पती दानुमत्याः । बृहन्तं गर्तमाशाते ॥८ ॥- `
वर्षा के लिए जिनकी वंदना की जाती है, नियमानुसार सब कुछ प्राप्त करने वाले, दान की प्रवृत्ति वाले, अनं
के अधिपति वे मित्र और वरुण देव श्रेष्ठ स्थान में प्रतिष्ठित हैं ॥८ ॥