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तमृचुस्सकला देवाः प्रणिपातपुरस्सरम्‌ ।

श्रीविच्णुपुराण

{ अ* १८

उन्हें देखकर समस्त देवताओंने प्रणाम करलेके

श्रसीद नाथ दैत्येभ्यख्राहि नश्शरणार्थिन: ॥ ३६ | अनन्तर उनसे कहा-- हे नाध ¦ प्रसन्न होइये और हम

्ैलोक्ययज्ञभागाश्च दैत्वैर्लादपुरोगमै: ।

हता नो ब्रह्मणोःप्याज्ञामुल्लडूय परमेश्वर ॥ ३७

यहाप्यशेषभूतस्य वयै ते च तवांशजा: ।

तथाप्यविद्याभेदेन भिन्न॑ पश्यामहे जगत्‌ ॥ ३८

स्ववर्णधर्माभिरता वेदपार्गानुसारिण: ।

न ज्ञक्यास्तेऽरयो हन्तुमस्माभिस्तपसावृता: ॥ ३९

तपमुपायमशेषात्मन्नस्मारक दातुमर्हसि ।

येन तानसुरानहन्तुं भवेम भगवन्क्षपाः ॥ ४०

श्रीपदशर उवाच

इत्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायापोहं शरीरतः ।

समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राह चेदं सुरोत्तमान्‌ ॥ ४९

मायामोहोऽयमचििलान्दै्यंस्तान्मोहयिष्यति ।

ततो वध्या भविष्यन्ति केदमार्गबहिष्कृताः ॥ ४२

स्थितौ स्थितस्य पे वध्या यावन्तः परिपन्थिनः ।

ब्रह्मणो हाधिकारस्य देवदैत्यादिकाः सुराः ॥ ४३

तद्च्छत न भी: कार्या मायामोहोऽयमग्रतः ।

गच्छन्नद्योपकाराय भवतां भविता सुराः ॥ ४

औपराशर उवाच

इत्युक्ता प्रणिपत्यैनं ययुर्देवा यथागतम्‌ ।

मायामोहो5पि तैस्साद्ध ययौ यत्र महासुराः । ४५

अरणागतोंकी दैत्योसे रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥ हे परमेश्वर !

हाद प्रभृति दैत्यगणने बद्याजोकी आज्ञाका भी उल्ल

कर हमारे और त्रित्मेकीके यज्ञभागोंका अपहरण कर

लिया है॥ ३७॥ यद्यपि हम और बे सर्वभूत आपहीके

अंदाज ह तथापि अविद्यावङ हम जगतक्पे परस्पर

भिन्न-भिन्न देखते है ॥ ३८ ॥ हमारे शत्रुगण अपने

वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावरूप्णी और

तपोनिष्ठ हैं, अतः वे हमसे नहीं मारे जा सकते॥ ३९ ॥

अतः हे सर्वात्मन्‌ ! जिससे हम उन असुरोका वध करनेमें

समर्थ हों ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये'' ॥ ४० ॥

श्रीपरादारजी बोले - उनके ऐसा कहनेपर भगवान्‌

विष्णु ने अपने शारीरसे मायामोहको उत्पन्न किया और उसे

देवताओंको देकर कहा ~ ॥ ४९ ॥ “यह मायामोह उन

सम्पूर्ण दैत्यगणको मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्गका

उल्लड्डन करनेसे तुमलोगोंसे मारे जा सकेंगे ॥ ४२ ॥ हे

देखगण ! जो कोई देखता अथवा दैत्य ब्रह्माजीके कार्यमें

चाघा डालते हैं वे सृष्टिकी रक्षामें तत्पर मेरे वध्य

होते हैं॥ ४३॥ अतः हे देवगण । अब तुम जाओ।

डरे मत । यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार

करेगा" ॥ ४४ ॥

अश्रीपराशरजी ओल्के---भगवानकी ऐसी आज्ञा

होनेपर देवगण यन्द प्रणाम कर जहाँसे आये थे वहाँ चले

गये तथा उनके साय मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ

गया ॥ ४५ ॥

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इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीर्येऽदो सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

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अठारहवाँ अध्याय

मायामोह और असुरोका संवाद तथा राजा दातधनुकी कथा

श्रीपराज्ञर उकाच श्रीपराक्षरजी बोले--हे मैत्रेय! तदनन्तर

तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान्‌ । | मायामोहने [देवताओंके साथ] जाकर देखा कि

मैत्रेय ददृहो गत्वा नर्मदातीरसंश्चितान्‌ ।॥ १ असुरगण नर्मदाके तटपर तपस्याय छे हुए हैं ॥ १ ॥ तब

ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज । उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश सायापोहने

मायामोहोऽसुरान्‌ इलक्ष्णपिदं वचनमत्रवीत्‌॥ २ |

असुरोंसे अति मधुर बाणीमें इस प्रकार कहा ॥ २॥

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