२१८
तमृचुस्सकला देवाः प्रणिपातपुरस्सरम् ।
श्रीविच्णुपुराण
{ अ* १८
उन्हें देखकर समस्त देवताओंने प्रणाम करलेके
श्रसीद नाथ दैत्येभ्यख्राहि नश्शरणार्थिन: ॥ ३६ | अनन्तर उनसे कहा-- हे नाध ¦ प्रसन्न होइये और हम
्ैलोक्ययज्ञभागाश्च दैत्वैर्लादपुरोगमै: ।
हता नो ब्रह्मणोःप्याज्ञामुल्लडूय परमेश्वर ॥ ३७
यहाप्यशेषभूतस्य वयै ते च तवांशजा: ।
तथाप्यविद्याभेदेन भिन्न॑ पश्यामहे जगत् ॥ ३८
स्ववर्णधर्माभिरता वेदपार्गानुसारिण: ।
न ज्ञक्यास्तेऽरयो हन्तुमस्माभिस्तपसावृता: ॥ ३९
तपमुपायमशेषात्मन्नस्मारक दातुमर्हसि ।
येन तानसुरानहन्तुं भवेम भगवन्क्षपाः ॥ ४०
श्रीपदशर उवाच
इत्युक्तो भगवांस्तेभ्यो मायापोहं शरीरतः ।
समुत्पाद्य ददौ विष्णुः प्राह चेदं सुरोत्तमान् ॥ ४९
मायामोहोऽयमचििलान्दै्यंस्तान्मोहयिष्यति ।
ततो वध्या भविष्यन्ति केदमार्गबहिष्कृताः ॥ ४२
स्थितौ स्थितस्य पे वध्या यावन्तः परिपन्थिनः ।
ब्रह्मणो हाधिकारस्य देवदैत्यादिकाः सुराः ॥ ४३
तद्च्छत न भी: कार्या मायामोहोऽयमग्रतः ।
गच्छन्नद्योपकाराय भवतां भविता सुराः ॥ ४
औपराशर उवाच
इत्युक्ता प्रणिपत्यैनं ययुर्देवा यथागतम् ।
मायामोहो5पि तैस्साद्ध ययौ यत्र महासुराः । ४५
अरणागतोंकी दैत्योसे रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥ हे परमेश्वर !
हाद प्रभृति दैत्यगणने बद्याजोकी आज्ञाका भी उल्ल
कर हमारे और त्रित्मेकीके यज्ञभागोंका अपहरण कर
लिया है॥ ३७॥ यद्यपि हम और बे सर्वभूत आपहीके
अंदाज ह तथापि अविद्यावङ हम जगतक्पे परस्पर
भिन्न-भिन्न देखते है ॥ ३८ ॥ हमारे शत्रुगण अपने
वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावरूप्णी और
तपोनिष्ठ हैं, अतः वे हमसे नहीं मारे जा सकते॥ ३९ ॥
अतः हे सर्वात्मन् ! जिससे हम उन असुरोका वध करनेमें
समर्थ हों ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये'' ॥ ४० ॥
श्रीपरादारजी बोले - उनके ऐसा कहनेपर भगवान्
विष्णु ने अपने शारीरसे मायामोहको उत्पन्न किया और उसे
देवताओंको देकर कहा ~ ॥ ४९ ॥ “यह मायामोह उन
सम्पूर्ण दैत्यगणको मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्गका
उल्लड्डन करनेसे तुमलोगोंसे मारे जा सकेंगे ॥ ४२ ॥ हे
देखगण ! जो कोई देखता अथवा दैत्य ब्रह्माजीके कार्यमें
चाघा डालते हैं वे सृष्टिकी रक्षामें तत्पर मेरे वध्य
होते हैं॥ ४३॥ अतः हे देवगण । अब तुम जाओ।
डरे मत । यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार
करेगा" ॥ ४४ ॥
अश्रीपराशरजी ओल्के---भगवानकी ऐसी आज्ञा
होनेपर देवगण यन्द प्रणाम कर जहाँसे आये थे वहाँ चले
गये तथा उनके साय मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ
गया ॥ ४५ ॥
न= * =
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीर्येऽदो सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
----- *# ----
अठारहवाँ अध्याय
मायामोह और असुरोका संवाद तथा राजा दातधनुकी कथा
श्रीपराज्ञर उकाच श्रीपराक्षरजी बोले--हे मैत्रेय! तदनन्तर
तपस्यभिरतान्सोऽथ मायामोहो महासुरान् । | मायामोहने [देवताओंके साथ] जाकर देखा कि
मैत्रेय ददृहो गत्वा नर्मदातीरसंश्चितान् ।॥ १ असुरगण नर्मदाके तटपर तपस्याय छे हुए हैं ॥ १ ॥ तब
ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विज । उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश सायापोहने
मायामोहोऽसुरान् इलक्ष्णपिदं वचनमत्रवीत्॥ २ |
असुरोंसे अति मधुर बाणीमें इस प्रकार कहा ॥ २॥