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2॥8

गृणाति सततं वेदा मामेकं परपेशवरम्‌।

वजि विविरयर्हमणा वैदिकैर्यतैः॥ ६॥

समस्त वेद एकमात्र मुझ परमेश्वर की सदा स्तुति करते है

और ब्राह्मण लोग विविध वैदिक यज द्वारा मेरा यजन करते

हैं।

सर्वे लोका न प्यति ब्रह्मा लोकपितामह:।

ध्यायन्ति योगिनो देवं भूताधिपतिमोश्वरम्‌॥७॥

सयस्त लोक और लोक पितामह ब्रह्मा भी मुझे नहो देख

पाते। योगीजन सम्पूर्ण भूतों के अधिपति देवस्वरूप मुझ

ईश्वर का ध्यान करते हैं।

अहं हि सर्वहविषां भोक्ता चैव फलप्रद:।

सर्ददेवतनुर्भूल्वा सर्वात्मा सर्वसंष्लुत:॥८॥

मैं हो सम्पूर्ण हि का भोक्ता और फल देने वाला हूँ। मैं

ही सभौ देवों का शरीर धारण कर सर्वात्मा और सर्वत्र व्याप्त

4

भां पश्यनतीह विद्व सो घार्मिको वेदवादिनः।

तेषं सन्निहितो नित्यं ये पां मित्यमुपासते॥ ९॥

मुझको वेदादौ धार्मिक विद्वान्‌ ही देख पाते हैं। जो मेरी

नित्य उपासना करते हैं मैं सदा उनके समोप रहता हूँ।

जाकृणा: क्षत्रिया वैज््या धार्प्पिका मापुणसते।

तेषा ददामि तत्सथानपानर्द परमम्पदम्‌॥१०॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जो भी धर्मयुक्त होकर मेरी

उपासना करते हैं उन्हें पै आनन्दमय परमपद प्रदान करता

|

अन्येऽपि ये स्वधर्षस्या झुद्राद्या नीचजातय:।

क्तिनः प्रपच्यते कालेनापि हि सह्ृत्ता:॥ १९॥

दूसरे भो नौच जाति के शूदर आदि लोग अपने धर्म पे

स्थित रहकर भक्तिमान्‌ होकर काल के द्वारा सान्निध्य प्राप्त

कर मुक्त हो जाते हैं।

प्रद्धक्ना न विनश्यति मद्धक्ता वीतकल्पषा:।

आदावेव प्रतिना न मे भक्तः प्रणाश्यति॥१२॥

मेरे भक्त विनाश को प्राप्त नहों होते, मेरे भक्त पापमुक्त हो

जाते है। प्रारम्भ पें ही मेरे द्वारा यह प्रतिज्ञात है कि मेरे भक्त

का नाल नहीं होगा।

यो वै निन्दति तं पृढ़ो देवदेवं स॒ नि्दति।

यो हि पृजयने भवत्वा स एजयति पां सदा॥ १३॥

कूमपहापुराणम्‌

जो मूढ़ मेरे उस भक्त कौ निन्दा करता है वह देवाधिदेव

की हो निन्दा करता है। जो उसका भक्तिपूर्वक आदर करता

है वह सदा पुझे हो पूजता है।

पत्रं पुष्पं एलं तोय पदाराघनकारणात्‌।

यो पे ददाति रियतं स॒ च भक्त: प्रियो पम १४॥

जो मेरौ आराधना के उद्देश्य से निवपपूर्वक पत्र, पुष्प,

एत और जल समर्पित करता है वह भक्त मेर प्रिय है।

अहं हि जगतामादी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्‌।

विदधौ दत्तवान्वेदानशेषानात्मनि:सृतान्‌॥ ९५॥

इस जगत्‌ के प्रारम्भ में परमे ब्रह्मा को मैंने हो बनाया

और आत्मनिसृत समस्त वेदों को उन्हें प्रदान किया।

अहेव हि सर्वेणां योगिनां गुरुरव्यय:।

धार्मिकाणां च गोप्ताहं निहन्ता वेदविद्विषाप्‌॥ १६॥

मैं ही सभी योगियों का अविनाशो गुरु, धार्मिकों का

रक्षक और वेदों से द्वेष करने वाले व्यक्तियों को मारने वाला

हूँ

आहं हि सर्वसंसाराम्मोचको योगिनापिहा

संसारेतुरेवाहं सर्वसंसारवर्ज्जित:॥ १७॥

मैं हो योगियों को संसार से मुक्त कराने वाला हूँ। मैं हो

संसार का कारण हूँ और सम्पूर्ण संसार से भिन्न हूँ।

अहेव हि संहर्ता संत्रष्टा परिणालक:।

माया वै मापिका शक्तिर्माया सोखविमोहिनी॥ १८॥

मैं हो संहारकर्त्ता, सृष्टिकर्ता ओर परिफालक हूँ। यह माया

मेगौ हो शक्ति है। यह जगत्‌ को मोहित करतो है।

मपैव च परा शक्तियाँ मा विश्वेति गीयते।

नाश्चयामि च तां पायां योगिनां इदि संस्थित:॥ १९॥

मेरी जो पराशक्ति है उसे विद्या नाम से पुकारते है। में

योगियों के हृदय में स्थित होकर उस माया को नष्ट करता

हूँ।

अहं हि सर्वज्नक्तोनां प्रवर्तकनिवर्त्तक:।

आधारधूत: सर्वासां निधानममृतस्थ च॥ २०॥

मैं ही समस्त शक्तियों का प्रवर्तक और निवर्तक हूँ। मैं हो

सबका आधारभूत और अमृत का निधान हूँ।

एका सर्वान्तरा शक्ति: रोति विविध जगत्‌।

(नाहं प्रेरियता विप्राः परप योगपात्रिताः)।

आस्थाय ब्रह्मणो रूपं पन्मयौ मदपिष्ठित॥। २९॥

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