२८ अथवकिद संहिता भाग-१
[ ६० - पतिलाभ सूक्त ]
[ऋषि - अथर्वा । देवता - अर्वमा । छन्द - अनुष्टुप् । ]
१४७३.अयमा यात्यर्यमा पुरस्ताद् विषितस्तुपः। अस्या इच्छन्नगरुवै पतिमुत जायामजानये॥
प्रशंसनीय सूर्वदेव पूर्व दिशा से उदित हो रहे हैं । वे स्त्रीरहित पुरुष को स्त्री एवं कन्या को पति प्राप्त कराने
को इच्छा से उदीयमान हो रहे है ॥६ ॥
१४७४. अश्रमदियमर्यमन्नन्यासां समनं यती । अङ्को न्वर्यमन्नस्या अन्याः समनमायति ॥
हे अर्यमन् (सूर्यदेव) ! ये पति की कामना वाली कन्याएं अव तक पति न मिलने के कारण छिन्न हो रही हैं ।
हे अर्यमन् ! अन्य कन्याएँ भी इनके प्रति शान्ति कर्म करने में संलग्न हैं ॥२ ॥
१४७५. धाता दाधार पृथिवीं धाता द्यामुत सूर्यम् ।
धातास्या अग्रुवै पतिं दधातु प्रतिकाम्यम् ॥२३॥
समस्त विश्च के धारणकर्त्ता ने पृथ्वी, चुलोक और सविता को अपने-अपने स्थान में धारण किया । वे धातादेव
ही इन पति- अभिलापिणी कन्याओं को इच्छित पति प्रदान करने कौ कृपा करें ॥३ ॥
[६१ - विश्चस्रष्टा सूक्त ]
[ ऋषि - अथर्वा । देवता - रुद्र | छन्द - १ त्रिष्रुप् २-३ भुरिक् बर्टुप् । ]
१४७६. मह्ममापो मधुमदेरयन्तां महं सूरो अभरञ्ज्योतिषे कम्।
महं देवा उत विश्वे तपोजा मह्यं देवः सविता व्यचो धात् ॥१ ॥
सर्वप्रेरक सूर्यदेव ने सुखदायक तेजस् सब ओर भर दिया है । जल के अधिष्ठातादेव मधुर जल प्रदान करे ।
तपः से उत्पन्न देवता हमे इष्ट फल प्रदान करे तथा सवितादेव हमारे लिए विस्तृत हों ॥१ ॥
१४७७. अहं विवेच पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम्।
अहं सत्यमनृतं यद् वदाम्यहं दैवीं परि वाचं विशश्च ॥२ ॥
(सूर्य या रुद्रदेव की ओर से कथन) मैन द्रूलोक एवं पृथ्वी को अलग किया है । वसन्त आदि छह ऋतु ओं
और (संसर्पाहस्पति नामक अधिमास रूप) सातवी ऋतु को मैंने ही बनाया है । मानवी (सत्यासत्य) एवं दैवौ वाणो
का वक्ता मैं ही हूँ ॥२ ॥
१४७८. अहं जजान पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त सिन्धून् ।
अहं सत्यमनृतं यद् वदामि यो अग्नीषोमावजुषे सखाया ॥३ ॥
पृथ्वी, स्वर्ग गंगादि सात नदियों एवं सात समुद्रो का उत्पादक मैं हूँ । मैं ही सत्यासत्य का वक्ता तथा मित्र
अग्नि और सोम को एक साथ संयुक्त करता हूँ ॥३ ॥
[६२ - पांवमान सूक्त ]
[ऋषि - अधर्वा । देवता - रुद्र (वैश्वानर, वात्, चयावापृथिवी) । छन्द - त्रिष्टप'। ]
१४७९. वैश्वानरो रश्मिभिर्न: पुनातु वातः प्राणेनेषिरो नभोभिः ।
द्यावापृथिवी पयसा पयस्वती ऋतावरी यज्ञिये नः पुनीताम् ॥१ ॥