काएड-६ सूक्त- ५९ २७
से या आंशिकरूप से सिंचित करें (धोएं या प्रभावित करें ) । यह रोग नष्ट करने बाली उग्र ओषधि है । हे रुद्रदेव !
आपको इस ओषधि से हमें सुख प्राप्त हो ॥२ ॥
१४६६. शं च नो मयश्च नो मा च नः कि चनाममत्।
क्षमा रपो विश्वं नो अस्तु भेषजं सर्व नो अस्तु भेषजम् ॥३ ॥
हे देव ! हमसे रोगजनित दुःखादि दूर रहें । हमारे पशु एवं प्रजा रोग - मुक्त रहें । रोग के मूलभूत कारण
“पापों ' का नाश हो । समस्त जगत् के स्थावर- जंगम प्राणियों एवं कर्मों की रोगनाशक शक्ति का हमें ज्ञान हो ॥३॥
[ ५८ - यशःप्राप्ति सूक्त ]
[ ऋषि - अथर्वा । देवता - वृहस्पति (१-२ इन्द्र, धावाप्रधिवी, सविता, ३ अग्नि, इद्ध, सोम) । छन्द -
जगती, २ प्रस्तार पक्ति.३ अनृष्टप् ।]
१४६७. यशसं मेन्द्रो मघवान् कृणोतु यशसं द्यावापृथिवी उभे इमे ।
यशसं मा देवः सविता कृणोतु प्रियो दातुर्दक्षिणाया इह स्याम् ॥१ ॥
धनवान् इन्द्रदेव, द्यावा-पृथिवी एवं सवितादेव हमें यश प्रदान करे । हम दक्षिणा प्रदान करने
वालो के प्रिय हो जाप ॥१॥ |
१४६८. यथेन्द्रो द्यावापृथिव्योर्यशस्वान् बथाप ओषधीषु यशस्वतीः ।
एवा विश्वैषु देवेषु वयं सर्वेषु यशसः स्याम ॥२ ॥
जैसे आकाश से पृध्वी पर जल-वर्षा करने से इन्द्रदेव यशस्वी हैं, जल ओषधियों मे यशस्वी है । उसी प्रकार
सब देवताओं एवं मनुष्यों में हम यश को प्राप्त करें ॥२ ॥
१४६९. यशा इनदरो यशा अग्निर्यशाः सोमो अजायत ।
यशा विश्वस्य भूतस्याहमस्मि यशस्तमः ॥३ ॥
इनद्रदैव्, अग्निदेव एव ' सोमदेव आदि जैसे यशस्वी हुए है, उसौ प्रकार बल चाहने वाले हम सब
प्राणियो म यशस्वौ बनें ॥३.॥
[५९ - ओषधि सूक्त ]
[ ऋषि - अथर्वा । देवता - रुद्र, अरुन्धती, जषधि । छन्द - अनुष्टप् । ]
९४७०. अनडुदभ्यस्त्वं प्रथमं धेनुभ्यस्त्वमरुन्धति ।अधेनवे वयसे शर्म यच्छ चतुष्पदे ॥१॥
हे अरुन्धती - दिव्य ओषधे ! आप बैलों को, गौओं को, अन्य चार पाँव वाले पशुओं को एवं पक्षियों को
सुख प्रदान करें ॥१ ॥
९४७१.शर्म यच्छत्वोषधिः सह देवीररुन्धती । करत् पयस्वन्तं गोष्ठमयक्ष्मां उत परुषान् ॥
यह (सहदेवी) ओषधि हमें सुख प्रदान कर हमारे गोत्र को दुग्ध - सम्पन्न बनाए एवं हमारे पुत्रपौत्रादि को
रोग मुक्त करे ॥२ ॥
१४७२.विश्वरूपां सुभगामच्छावदामि जीवलाम्। सा नो रुद्रस्यास्तां हेतिं दूरं नयतु गोभ्य:||
हे (सहदेवी) ओषये ! अनेक रूपों बालो, सौ भाग्यशालिनी एवं जीवनदायिनी आप रुद्र द्वारा फेके गये शस्त्र
अर्थात् रोगों से हमारे पशुओं को कृपा करके बचाएँ ॥३ ॥