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मध्यमपर्य, द्वितीय भाग ] = वास्तु-मण्डलके निर्माण एवं वास्तु-पूज़नकी संक्षिप्त विधि «

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उत्पन्न हुआ है । अतः जिनं अपने गोत्र और प्रवरका ज्ञान नहीं. मालूम न हो तो स्वयंको काश्यप "गोत्रोय मानकर उनका प्रवर

है, उन्हें अपने पिताजीसे ज्ञाते कर लेना चाहिये । यदि उन्हे लगाकर शा्रानुस्यर कर्म करना चाहिये । (अध्याय ९)

वास्तु-मण्डल्वके निर्माण एवं वास्तु-पूजनकी

संक्षिप्त विधिः

सूतजी कहते है -- ब्राह्मणो ! अब मैं वास्तु-मण्डलका

संक्षिप्त वर्णन कर रहा हूँ। पहले भूमिपर अङ्ुरोकः रोपण

करके भूमिकी परीक्षा कर ले। तदनन्तर उत्तम भूमिके मध्ये

वास्तु-मण्डलका निर्माण करे । वास्तु-मण्डलके देवता पैंतालीस

हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं--(१) शिखी, (२) पर्जन्य,

(३) जयन्त, (४) कुलिशायुघ, (५) सूर्य, (६) सत्य,

(७) कृष, {८) आकाश, (९) वायु. (१०) पृथा,

(१६) वितथ, (१२) गुहा, (१३) यम, (१४) गन्धर्व,

(१५) मृगराज, (१६) पृग, (१७) पितृगणः,

(१८) दौवारिक, (१९) सुरव, (२०) पुष्पदन्त,

(२१) वरुण, (२२) असुर, (२३) पशु, (२४) पाडा,

(२५) रोग, (२६) अहि, (२७) मोक्ष, (२८) भल्लार,

(२९) सोम, (३०) सर्प, (३१) अदिति, (३२) दिति,

(३३) अप्‌, (३४) स्ववित्र, (३५) जय, (३६) रुद्र,

(३७) अर्यपा,. (३८) सथिता, (३९) विवस्वान्‌,

(४०) किवुधाधिष, (४१) मित्र, (४२) राजयक्ष्मा,

(४३) पृथ्वीधर, (४४) आपवत्स तथा (४५) ह्या ।

इन पैंतालीस देवताओंके साथ ही वास्तु-मण्डलके बाहर

ईशानकोणमें चरकी, अग्रिकोणमें विदारी, नैर्त्यकोणपे पूतना

तथा वायव्यकोणमें पापणाक्षसीकी स्थापना करनी चाहिये।

मण्डलके पूर्व दिज्लामें स्कन्द्‌, दक्षिणमें अर्यमा, पश्चिमे

जृम्भक तथा उत्तरम पिलिपिच्छक्री स्थापना करनी चाहिये । इस

प्रकार वास्तु-मण्डलमें तिरपन देवी-देवताओंकी स्थापना होतो

है। इन सभीका अलग-अलग मन्त्रोंसे पुजन करना चये ।

मष्डल्के चाहर ही पूर्वादि दस दिशाओंमें दस दिक्पाल

देवताओं--इन्र. अग्रि, यम, निरति, वरुण, कायु, कुबेर,

ईशान, ब्रह्मा तथा अनन्तकी भो यथास्थानं पूजा कर उन्हें बलि

(नैवेद्य) निवेदित करनी चाहिये । वास्तु-मण्डलकी रेखा

शेत वर्णसे तथा पध्ये कमल लाल वर्णसे अनुरञ्जित करना

चाहिये। दिखी आदि पैंतालीस देवताओंके कोष्टकौको रक्तादि

रेगोंसे अनुरञ्जित करना चाहिये । गृह, दैवमन्दिर, महाकूप

आदिक निर्माणे तथा देव-प्रतिष्ठा आदिमे वास्तु -मष्डललका

निर्माणकर वास्तुमण्डलस्थ देवताओंका आवाहनकर उनका

पूजन आदि करना चाहिये। पवित्र स्थानपर लिपी-पुती डेढ़

१-सबके लिये एकमात्र परम्भा ही परम्क्याणार्थ ध्येय-ङेय हैं और कश्यपनन्दन सूर्यके रूपयें ये प्रत्यक्षरूपसे संसारका पालन,

संचालन--ठप्पा तथा प्रकाशके रूपमें, फिर वायु--प्राणके रूपये समस्त प्राणियोंके जीवन यमे हैं। इसलिये सभी चैष्णव और संन्यासो

अपनेकये अच्युत - ण्य ही मानते हैं। प्राचीन पर्पणके अपुप्तार वेदाध्ययनमें वैदिक शाखा, सूत्र, ऋषि, गोत्र और प्रवरका शने आवश्यक

था। यह विषय आश्रल््यन यृहासूकमोें भी निर्देश है।

२-जिस भूमिपर मनुष्यादि प्रणी निकास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। इसके गृह, देवशासाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद

है। इसपर वास्ुपक्वल्तभ, समरङ्गणसूप्रपार, बृहत्मेहिता, पिस्परन, गृहरत्रभूषण, हयदर्षपा्रात्र तथा कपिल-प्यहरात्र आदि उम्धोंपें पूणं विचार

किया गया है। पुराणोमे मत्स्य, अपरि तथा विष्णुधमॉत्तपपुराणमें भी यह महत्वपूर्णं विषय आया है। 'कल्याण' के देवताडूनें भौ वासलु-चक्रादिके

विषयमे सामग्री संकलित की गयी है । ब्रास्तुफे ऋधिर्भावके विषयमे म्त्यपुण्णमें आया है कि अन्यकासुरके वधके समय भगवान्‌ दौकरके ललाटे

ज स्वेदबिन्दु गिरे उनसे एकः भयंकर आकृतिवाल पुरुष प्रकट हुआ | जय वह जिल्लेवयका भक्षण करनेके कवये उद हुआ, तब शकर आदि

देवताओनि उत पृथ्वीपर सुर्मकर आस्तुदेवता (कास्तुपुरुष) के रूपयें प्रतिष्ठित किया और उसके ऊगौरमे सभो देवताओनि घास क्िदा । इसील्डिये

चह वास्तुदेवता कहल्मया । देखताओनि उसे पूजित होनेक्ा वर भी प्रदान किया । वास्तुदेबताकी पूजाके लिये यासुप्रतिमा तथा वास्नुचकर यन्द जाता

है। यास्तुचक्र प्रायः ४९ से छेकर एक साहस््र पदात्पफ होता है। पिञ्र-भिन्न अवसरोपर भिन्न-भिन्न वास्तुषफ्रेंफा निर्माणकर उनमें देवत ओक

आवाहन, स्थापन एवं पूजन किया जात है। चौसठ पदात्मक तथा इक्यास्री फ्दात्पक यास्तुचक्रके पूजनकी परण्यगा विशेषरूपसे प्रचलिते है। इन

सभी जास्तुच्क्रके भेदोंमे प्रायः इन्द्रादि दस दिके साथ झिखी आदि पैंताल्थरेस देवता ओकर पूजने किया जाता है तथा उन्हें पायसान्न ब्ल प्रदान

की जाती है । कर्तुकाम याल्तुदेयता (यास्तोष्यति) की पूजाकर उनसे सर्वीकष रान्दि एवं कल्याणक प्रार्थना को जाती है।

सं" भल् पुर अऑ ८०--

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