* अध्याय ९७ *
छोडकर स्थाणु-विसर्जन करे। आसाधारण
लिङ्गो ` क्षमस्व' इत्यादि कहकर विसर्जन
करे ॥ ४५--५०॥
आवाहन, अभिव्यक्ति, विसर्ग, शक्तिरूपता
ओर प्रतिष्ठा-ये पाँच बातें मुख्य है । कहीं-कहीं
प्रतिष्ठाके अन्ते स्थिरता आदि गुणोंकी सिद्धिके
लिये सात आहुतियाँ देनेका विधान है । भगवान्
शिव स्थिर, अप्रमेय, अनादि, बोधस्वरूप, नित्य,
सर्वव्यापी, अविनाशी एवं आत्मतृप्त है । महेश्वरकी
संनिधि या उपस्थितिक लिये ये गुण कहे गये हैं।
आहुतियोंका क्रम इस प्रकार दै-' ॐ नमः
शिवाय स्थिरो भव नमः स्वाहा ।'-इत्यादि। इस
प्रकार इस कार्यका सम्पादन करके शिव-कलशको
भाँति दो कलश और तैयार करे। उनमेंसे एक
कलशके जलसे भगवान् शिवको सान कराकर,
दूसरा यजमानके स्नानके लिये रखे। (कहीं-कहीं
“कर्मस्थानाय धारयेत्।' ऐसा पाठ है। इसके
अनुसार दूसरे कलशका जल कर्मानुष्ठानके लिये
स्थापित करें, यह अर्थ समझना चाहिये।) इसके
बाद बलि देकर आचमन करनेके पश्चात् शिवकी
आज्ञासे बाहर जाय॥ ५१--५५॥
याग-मण्डपके बाहर मन्दिरके ईशानकोणमें
चण्डका स्थापन-पूजन करे । फिर मण्डपे धामके
गर्भके बराबर उत्तम पीठपर आसनकी कल्पना
करके, पूर्ववत् न्यास, होम, आदिका अनुष्ठान
करे। फिर ध्यानपूर्वक " सद्योजात" आदिकी स्थापना
करके, वहाँ ब्रह्माङ्गाय विधिवत् पूजन करे ।
ब्रह्माङ्गोका वर्णन पहले किया जा चुका है । अब
जिस प्रकार मन्त्रद्वारा पूजत किया जाता है, उसे
सुनो-" ॐ बं सद्योजाताय हूं फट् नमः।' “ॐ
विं वामदेवाय हूं फट् नम:।' ` ॐ वुं अघोराय हूं
कै ऋ कक कक 4... 5...
फट् नम:॥' इसी प्रकार ' ॐ में तत्पुरुषाय डूं फट
नमः।' तथा * ॐ वो ईशानाय हुं फट् नमः।'-
ये मन्त्र हैः ॥ ५६--५९॥
इस प्रकार जप निवेदन करके, तर्पण करनेके
पश्चात्, स्तुतिपूर्वक विज्ञापना देकर चण्डेशसे
प्रार्थना करे-' हे चण्डेश ¦ जबतक श्रीमहादेवजी
यहाँ विराजमान हैं, तबतक तुम भी इसके समीप
विद्यमान रहो। मैंने अज्ञानवश जो कुछ भी
न्यूनाधिक कर्म किया है, वह सब तुम्हारे
कृपाप्रसादसे पूर्ण हो जाय । तुम स्वयं उसे पूर्ण
करो ।' जहाँ बाणलिङ्गं (नर्मदेश्वर) हो, जहाँ चल
लोहमय (सुवर्णमय) लिङ्ग हो, जहाँ सिदलिङ्ग
(ज्योतिर्लिड्रादि) तथा स्वयम्भूलिङ्ग हों, वहाँ
और सब प्रकारकी प्रतिमा्ओंपर चढ़े हुए
निर्माल्यमें चण्डेशका अधिकार नहीं होता है।
अद्वैतभावनायुक्त यजमानपर तथा स्थण्डिलेश-
विधिमें भी चण्डेशका अधिकार नहीं है
चण्डका पूजन करके ल्लापकं (अभिषेक करनेवाला
गुरु) स्वयं ही पत्नी और पुत्रसहित यजमानको
पूर्व-स्थापित कलशके जलसे स्नान करावे।
यजमान भी खरापक गुरुका महेश्वरकी भाँति पूजन
करके, धनकौ कंजूसी छोडकर, उन्हें भूमि और
सुवर्ण आदिकी दक्षिणा दे ॥ ६०--६४ ॥
तत्पश्चात् मूर्तिपालकों तथा जपकर्ता ब्राह्मणोंका,
ज्योतिषीका और शिल्पीका भी भली भति विधिवत्
पूजन करके दीनों और अनाथो आदिको भोजन
करावे। इसके बाद यजमान गुरुसे इस प्रकार
प्रार्था करे--'हे भगवन्! यहाँ सम्मुख क्ररनेके
लिये मैंने आपको जो कष्ट दिया है, वह सब
आप क्षमा करें; क्योंकि नाथ! आप करुणाके
सागर हैं, अतः मेरा सारा अपराध भूल जाँ ।'
१. इन मन्त्रॉके जिषयमें पाठभेद मिलता है। सोमशम्भुकौ “कर्मकाण्ड-क्रमायलौ ने ये मन्त्र इस प्रकार दिये गये ६-'ॐ चैं
सद्योजाताय हूं फट् नमः ।' ' ॐ सै तत्युरुषाय हूं फट् जमः।' ' ॐ चँ प्रशमताय हूं फट् तम:।'
२. ऋनलिङ्गे चले लोहे सिद्धलिङ्गे स्वयम्भुवि ।
प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्। अद्वैतभावनायुक्ते स्थण्डिलेशजिधाबपि॥ (अग्नि० ९७। ६२-६३)