# सुद्रलेकिता * २९७
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करूणामय ईश्वर हैं। आपके भयसे यह यायु पर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये।
चलती है । आपके भयते अभि जलानेका देवताओंको आश्वासन दे हँसकर उनपर परम
काम करती है, आपके भवस सूर्य तपता है. अनुग्रहे करते हुए करूणानिधान परसप्रेश्वर
और आपके ही भयते मृत्य् सव ओर
दौडती फिरती है। द्यासिन्थों महेशान !
परमेश्वर ! प्रसन्न होइये । हम नष्ट और अचेत
खे रहे हैं । अतः सदा ही हसारी रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये। नाथ ! करुणानिधे !
आम्यो ! आपने अचरत नाना प्रकारकी
आपत्तियोंसे जिस तरह हमें सदा सुरक्षित
रखा है, उसी तरह आज भी आप हमारी
रक्षा कीजिये। नाथ ! दुर्गेश ) आप द्ीघ्न
कृपा करके इस अपूर्ण यज्ञका और
प्रजापति दक्षका भी उद्धार कीज़िये। भगको
अपनी आँखें मिले जायें, यजपान दक्ष
जीवित हो जाय, पूषाके दाँत जम जायै और
भरगुकी दाढ़ी-पुंछ पहले-जैसी हो जाय।
झोकर ! आयुधों और पत्थरॉको वर्षसि
जिनके अड्भ-भडज्ठ हो गये हैं, उन देता
आदिपर आप सर्वथा अनुप्रह करें, जिससे
उहें पूर्णतः आरेग्य ज्लाभ हो। नाथ !
सब आपका पूरा-पूरा भाग हो (उसमें और
कोई हस्तक्षेप ना करें) । स्द्रकेव ! आपके
आगसे ही यज्ञ पूर्ण हो, अन्यधा नहीं ।
ऐसा कहकर घुझ ब्रह्मके साथ समी
देखता अपराध क्षमां करानेके लिये उद्यत हो
हाथ जोड़ भूमिपर दण्डके समान पड़ गये।
त्रह्माजी कहते है--नारद् ! मुझ ब्रह्मा,
लोकपति, प्रजापति तथा मुनिदयोसहित
श्रीपति वचिष्णुके अनुनय-विनय करने-
छितने कहा ।
श्रीमहादेवजी नोले--सुरक्रेष्ठ ब्रह्मा और
विष्णुदेव } आप दोनों सावधान होकर मेरी
बात सुने, में सकी बात कहता हूँ! तात !
आप दोनॉकी सभी बातोंकों सैन सदा माना
है। दक्षके यज्ञका यह विध्व॑स मैंने नहीं
किया है। दक्ष खयं ही दूसरोंसे द्वेष करते है ।
दूसरोंके प्रति जैसा जर्तांव किया जायगा,
वह अपने लिये ही फल्कित होगा । अतः ऐसा
कर्म कभी नहीं करना चाहिये, जो दूसरोंको
कष्ट देनेवाछा हयो ^ । दक्षका मस्तक जर
गया है, इसल्थयि इनके सिरके स्थानें
बकरेका सिर जोड़ दिया जाय; भग देखता
मित्रकी आँखसे अपने यश्ञभागको देखे ।
तात ! पूषा नामक देखता, जिनके दाँत टूट
गये है, घजपमानके दासि भत्ठीभाँति पिसे
गये यज्ञान्नका भक्षण करें। यह मैंने सदी
चात जतायी है। मेरा विरोध करनेवाले
भुगुकी दाढ़ीके स्थानमें खकरेकी दाढ़ी खगा
डी जाय। घोष सभी देवताओंके, जिन्होंने
मुझे यज्ञभागके रूपे यज्ञकी अचक्चिष्ठ
यस््तुएँ दो हैं, सारे अङ्ग पहलेकी भाँति ठीक
हो जाय । अश्व्यं आदि याज़िकॉमेंसे,
जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, जे अश्चिनी-
कुमारोंकी भुजाओंसे और जिनके हाथ
नष्ट छे गये हैं, ये पृषाके हाथोंसे अपने
काम चलायें। यह मैने आपस्णेगोंक्रे प्रेमवश
कहा है।
परे दि पेषं गरात्मारतद्धभिन्यति ॥ पेषं फ्रेदने कर्म न कै तत्कदाचन ।
(क्षिः १, रू से० से" खं ४२ । ५-६)