अभृत मधन वणेन | [ २९३
त्वयेकयैव जेतव्यो न णक्यस्त्वपरैः सुर : ॥४६
इस प्रकार से सब पर स्नेह एवं प्यार करने वाली वह देवी थी और
अन्यत्र ऐसा कहों भी नहीं था । उस देवी ने समस्त जनों को निरन्तर
अत्यधिक अनुराग से सन्तुष्ट कर रका था ।४३। इप महान भूलोक में
वह राज्ञो राजा हों चाहे विद्वान होवें सकल की ईप्सा रखने वाले समस्त
भूतल के निवासीजनों के अभीष्ट पदार्थों का दोहन किया करती थी ।४४।
तीनों लोकों के एक हो महीपाल अम्बिका के सहित काम श्र के होने पर
दश सहल्न वर्ष एक ही क्षण के समान व्यतीत हो गये ये।४५। इसके अनन्तर
देवथि नारद जो भगवान किसी समय में वहां पर समागत हुए थे और उस
परमा शक्ति को प्रणाम करके उन्होने विनय से समन्वित होकर कहा था
था।४६। आपतो परत्रह्म-परधाम और पवित्र हैं। है परमेश्वरि ! आप सद-
असतु भावों के कलन कै स्वरूप वाली हैं ।४७। इस जगत के अभ्युदय के ही
लिए आप इस व्यक्तभाव को प्राप्त हुई हैँ । आप इस लोक में असज्जनों के
विनाश के लिए और सज्जनों के अभ्युदय करने वाली हैं। है कल्याणि !
आपकी जो प्रवृत्ति है वह साधु पुरुषों के रक्षण के ही लिए हैं ।४८। यह एक
भण्डासुर है हे देवि ! यह तीनों लोकोंको बाधा दे रहा है । यह केवल आप
ही के द्वारा जीता जा सकता है ऐसी एक ही आप हैं और दूसरे सुरों के
द्वारा तो यह कभी भी जीता नहीं जा सकता है ।४६।
त्वत्सेवकपरा देवाश्चिरकालमिहो षिता: ।
त्वदाज्ञया गमिष्यंति स्वानि स्वानि पुराणि तु ॥५०
अमंगलानि शून्यानि समृद्धार्थानि संत्वतः ।
एवं विज्ञापिता देवी नारदेनाखिलेश्वरी ।
स्वस्ववासनिवासाय प्रेषयामास चामरान् ॥५१
ब्रह्माणं च हरि शम्भु वानवादीन्दिशां पतीन् ।
यथाहं पूजयित्वा तु प्रेषयामास चांबिका ॥५२
अपराधं ततस्त्यक्तुमपि संप्रेषिताः सूराः ।
स्वस्वांशेः शिवयोः सेवामादिपित्रोरकुवंत ॥५३
एतदाख्यान मायुष्यं सवेमंगलकारणम् ।