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२ अथर्ववेद संहिता भाग-२

४५७२. अनभ्रयः खनमाना विप्रा गम्भीरे अपसः ।

भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपो अच्छा वदामसि ॥३॥

कुदाल आदि खनन उपकरणों के न रहते हुए भौ जो दोनों ओर के तटो को गिराने में सक्षम हैं । जो स्वयं

का जीवन- व्यापार चलाने वाले मनुष्यो की बौद्धिक सामर्थ्यं को बढ़ाते हैं तथा जो अतिगहन स्थलों में रहते हैं,

ऐसे वैद्यो (ओषधि विशेषज्ञों से भी अधिक हितकारी जल की हम स्तुति करते हैं ॥३ ॥

४५७३. अपामह दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम्‌। अपामह प्रणेजनेऽश्वा भवथ वाजिनः ॥४ ॥

हे ऋत्विजो ! वर्षा द्वारा आकाश मार्ग से प्राप्त होने वाले तथा स्रोतों से प्राप्त होने वाले जल के सदुपयोग

के लिए अश्च की भाँति शौघ्रता करें ॥४ ॥

४५७४. ता अपः शिवा अपो5यक्ष्मंकरणीरप: । यथैव तुष्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजीः ॥

हे ऋत्विजो ! आप मंगलकारी, हानिकारक रोगों के शमनकर्ता, ओषधिरूप जल को लेकर शीघ्र आएँ ,

जिससे सुखो की वृद्धि हो ॥५ ॥

[ ३ - जातवेदा सूक्त ]

[ ऋषि- अवर्वाद्विया | देवता- अग्नि । छन्द- त्रिष्टुप्‌, २ भुरिक्‌ त्रिष्टप । |

४५७५. दिवस्पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षाद्‌ वनस्पतिभ्यो अध्योषधीभ्यः ।

यत्रयत्र विभूतो जातवेदास्तत स्तुतो जुषमाणो न एहि ॥१ ॥

हे सर्वज्ञ अग्निदेव ! आप पृथ्वी, चुलोक अन्तरि शलोक, वनस्पतियों और ओषधियों मे जहाँ कहीं भी विशेष

रूप से विद्यमान हों, प्रसन्नतापूर्वक हमारे अनुकूल होकर पारे ॥१ ॥

४५७६. यस्ते अप्सु महिमा यो वनेषु य ओषधीषु पशुष्वप्स्वन्तः ।

अग्ने सर्वास्तन्वशः सं रभस्व ताभिर्न एहि द्रविणोदा अजखः ॥२ ॥

है अग्निदेव ! आपकी महत्ता जो जल में ( बड़वाग्निरूप में ) जंगल में ( दावानलरूप में ) ओषधियों में

(फल पाकरूप में ), पशु आदि सभी प्राणियों में ( वैश्वानररूप में ) तथा अन्तरिक्षीय मेघों में ( विद्युत्‌ रूप में )

विद्यमान है ।अपने उन सभी स्वरूपो के साथ आप पधारें और्‌ हमारे लिए अक्षय धन प्रदान करने वाले सिद्ध हों ॥

४५७७. यस्ते देवेषु महिमा स्वगो या ते तनूः पितृष्वाविवेश ।

पुष्ट्या ते मनुष्येषु पप्रथेऽग्ने तया रयिमस्मासु धेहि ॥३॥

है अग्निदेव ! देवों मे स्वाहाकार हव्य को पहुँचाने वाले, पितो मे स्वधाकार कव्य को पहुँचाने वाले

तथा मनुष्यों में आहार को पचाने वाले के रूप में आपकी महिमा है । इन सभी रूपों में आप अनुकूल होकर पधार

तथा हमें धन प्रदान करें ॥३ ॥

४५७८. श्रुत्कर्णाय कवये वेद्याय वचोभिवकिरुप यामि रातिम्‌।

यतो भयमभयं तन्नो अस्त्वव देवानां यज हेडो अग्ने ॥४॥

स्तुतियों को सुनने में समर्थ, अतीन्द्रिय क्षमतायुक्त, सबके जानने योग्य, अभीष्ट फलप्रदाता अग्निदेव

की हम वन्दना करते हैं। हे अग्निदेव ! जिनसे हमें भय है, उनसे निर्भयता की प्राप्ति हो । आप हमारे प्रति

देवों के क्रोध को शान्त करें ॥४ ॥

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