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* तपस्तीर्थं, इन्द्रतीर्थ और वृषाकपि एवं अब्जक-तीर्शकी महिमा * २९७

महापयक्रमी महाशनिने युद्धके मुहानेपर एेगवतसहित | रखकर स्वयं भृत्यका-सा बर्ताव करना, नहीं तो

इन्द्रको परास्त किया और उन्हें ले जाकर अपने | फिर तुम्हें बाँधकर रसातलके कारागृहमें डाल

पिताको सौंप दिया। इन्द्रपर विजय पानेके बाद | दूँगा।'

महाशनिने वरुणको जीतनेके लिये उनपर आक्रमण | इस प्रकार इनद्रको फटकारकर उसने बारंबार

किया; किंतु वरुण बड़े बुद्धिमान्‌ थे, उन्होंने | हँसते हुए कहा-' जाओ, जाओ; वरुणजीका

महाशनिकों अपनी कन्या ब्याह दी। इधर तीनों | सदा आदर करना।' इन्द्र अपने घर आये। वे

लोक बिना इन्द्रके हो गये। तब सब देवताओंने | अपमानपूर्ण लज्जासे काले पड़ गये थे! उन्होंने

मिलकर सलाह की कि “भगवान्‌ विष्णु हौ पुनः | शतरुद्रा तिरस्कृत होनेकी सारी बातें इन्द्राणीको

इन्द्रको दे सकते हैं; क्योंकि वे ही दैत्योंके हन्ता | | कह सुनावीं ओर पूछा--'सुमुखि! शत्रुने मुझसे

हैं। मन्त्रद्रष्टा भी वे ही हैं। अत: वे दूसरेको भी | इस तरह कठोर बातें कहीं और मेरे साथ ऐसा

इन्द्र बना देंगे।' अनुचित बर्ताव किया। इससे मेरे हृदयमें आग

ऐसा निश्चय करके सब देवता भगवान्‌ विष्णुके | लग रही है। तुम्हीं बताओ-- कैसे अपने हदयको

पास गये और उन्हें सब हाल कह सुनाया। | शीतल करूँ?'

भगवान्‌ विष्णुने कहा--'महादैत्य महाशनि मेरे इन्द्राणीने कहा- बलसूदन! मैं दानवॉकी

लिये अवध्य है।' यों कहकर वे महाशनिके श्वशुर | उत्पत्ति, पराजय, माया, वरदान तथा मृत्यु-सब

जरुणके पास गये और उन्हें इन्द्रके पराभवका | जानती हूँ। महाशनिको तपस्यासे ही यह शक्ति

समाचार बतलाते हुए बोले--'तुम्हें ऐसा यत | प्राप्त हुई है। तपस्यासे कुछ भी असाध्य नहीं है।

करना चाहिये, जिससे इन्द्र पुनः अपने पदपर | यज्ञ-कर्मसे कोई बात असम्भव नहीं है। जगन्नाथ

लौट आयें।' भगवान्‌ विष्णुके आदेशसे वरुण | भगवान्‌ विष्णु तथा विश्वनाथ शिवकी भक्तिसे

शौत्र ही वहाँ गये। दैत्यने विनयपूर्वक अपने | कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जो सिद्ध न हो

श्रशुरसे वहाँ पधारनेका कारण पूछा। वरुणने | सके।* प्राणनाथ! मैंने और भी एक बहुत सुन्दर

कहा--' महाबाहो ! कुछ दिन पहले तुमने इन्द्रको बात सुन रखी है। कारण कि स्वर्यो ही

परास्त करके रसातलमें बंदी बना लिया है। वे | स्तरियोकि स्वभावको जानती हैं। प्रभो! भूमि तथा

देवताओंके राजा हैं। उन्हें लौरा दो। यदि शत्रुको | जलकी अधिष्ठात्री देवियोंके द्वारा कोई भी कार्य

बाँधकर फिर छोड़ दिया जाय तो वह सत्पुरुषोंके असाध्य नहीं है। तपस्या अथवा यज्ञ आदि

लिये महान्‌ कारण होता है।' “बहुत अच्छा' | उन्हीं दोनोंके सहयोगसे होते हैं। उसमें भी जो

कहकर दैत्यराज महाशनिने एेरावतसहित इन्द्रको | तीर्थभूमि हो, वहीं आप चलें। उस स्थानपर

लौटा दिया और उनसे यह बात कही--'इन्द्र! | भगवान्‌ विष्णु तथा शिवकी पूजा करके सम्पूर्ण

आजसे तुम शिष्य हुए और मेरे श्वशुर वरुणजी | अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त कर लेंगे। मैंने यह भी सुना

तुम्होरे गुरु हुए; क्‍योंकि इन्होंने तुम्हें मुक्ति | है कि जो स्त्रियँ पतिव्रता है, वे ही सब कुछ

दिलायी है। अब तुम बरुणके प्रति स्वामिभाव | जानती हैं। उन्होने हौ चराचर जगत्‌कौ धारण

* जासाध्यमस्ति तपसौ नासाध्यं यज्ञकर्मण:। नासाध्यं लोकनाथस्य विष्णोर्भकत्या हरस्य च ॥

[ 444१] संर ज्र° पु०--८ (१२९। ५०)

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