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उत्तराच त्रयोदशोऽध्यायः १३.५

१४६८. युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ॥९॥

आदित्यरूप, अग्निरूप, चलायमान दीखने वाले, पर स्थिर सूर्यदेव की हम आराधना करते है । सूर्य के तुल्य

इन्द्रदेव की प्रकाश-किरणें समस्त नक्षत्र-लोक में प्रकाश फैलाती है ॥९ ॥

[सूर्य के स्थिर रहने (पृथ्वी के घूमने) का सिद्धासत वैदिक ऋषियों के लिए अनजाना नहीं था; |

१४६९. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णु नृवाहसा ॥९० ॥

इन्द्ररूपी आत्मा को इच्छित स्थान पर ले जाने के लिए, शरीररूपौ रथ, कर्म व ज्ञानरूपी अश्वो के द्वारा स्वींचा

जाता है, मनरूपी सारथी द्वारा चलाया जाता है ॥१० ॥

९४७०. केतुं कृण्वननकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथाः ॥१९ ॥

हे मनुष्यो ! अज्ञानी को ज्ञानयुक्त करते हुए, कुरूप को रूपवान्‌ करते हुए, उषाकाल में ये सूर्यदेव प्रकट

होते हैं ॥११ ॥

॥ इति चतुर्थः खण्डः ॥

कै कै के

॥ पंचम खण्डः ॥

९४७१. अयं सोम इन्द्र तुभ्यं सुवे तुभ्यं पवते त्वमस्य पाहि ।

त्वं ह यं चकृषे त्वं ववृष इन्दुं मदाय युज्याय सोमम्‌ ॥१ ॥

हे इन्द्रदेव यहे सोषरस आपके निमित्त निकालकर शोधित किया जाता है । इस पवित्र हुए सोम का आप

पान करें । आप ही इसके उत्पादक हैं, इस दीप्तिमान्‌ सोम को आनन्द के लिए, योग के लिए आप ग्रहण करें ॥१ ॥

१४७२. स इ रथो न भुरिषाडयोजि महः पुरूणि सातये वसूनि ।

आदीं विश्वा नहुष्याणि जाता स्वर्षाता वन ऊर्ध्वां नवन्त ॥२ ॥

वे महान्‌ इनदरदेव अधिक भार धारण किये हुए, रथ के समान्‌ हमे अपार वैभव प्रदान करने के निमित्त, नियुक्त

किये गये हैं और हमारे विरोधी शत्रुओं को संग्राम में विनष्ट करते हैं ॥२ ॥

१४७३. शुष्मी शर्थो न मारुतं पवस्वानभिशस्ता दिव्या यथा विट्‌ ।

आपो न मक्षु सुमतिर्भवा नः सहस्राप्साः पृतनाषाण्न यज्ञ: ॥३ ॥

हे सोमदेव ! मरुद्गण के तुल्य बल प्राप्त करने के लिए आप पवित्र हों । जैसे दिव्य प्रजा परस्पर ईर्ष्या

निन्दासे दूर अखण्ड रहती है, वैसे हौ आप जल के समान पवित्र होकर हमारे लिए उत्तम बुद्धि प्रदान करें अनेक

रूपों में विभूषित, शत्रुविजेता आप यज्ञ के सदृश पूज्य हैं ॥३ ॥

१४७४. त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषं हितः ¦ देवेभिर्मानुषे जने ॥४॥

हे अग्निदेव ! ! आप सब यज्ञो को सम्पन्न करने वाले है । देवताओं ने आपको मानव-मात्र के कल्याण के

लिए नियुक्त किया है ॥४ ॥

१४७५. स नो मन्द्राभिरध्वरे जिह्वाभिर्यजा महः । आ देवान्वक्षि यक्षि च च ॥५ ॥

हे अग्निदेव ! आप हमारे यज्ञ में हर्षवर्द्धक ज्वालाओं के द्वारा देवों का यजन करें । देवताओं का आवाहन

कर उन्हें तृप्तिदायक हविष्यान अर्पित करें ॥५ ॥ ५

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