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ष अर्ववेद्‌ संहिता घाग-२

जो सहस्रो भुजाओं वाले, सहो नेत्रों वाले और सहस्नों चरण वाते विराद्‌ पुरुष हैं, वे सम्पूर्ण भूमि को

आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ॥१ ॥

४५८५.त्रिभिः पद्धिर्धामरोहत्‌ पादस्येहाभवत्‌ पुनः । तथा व्य क्रापद्‌ विष्वडशनानशने अनु

चार भागों वाले विराट्‌ पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार (जड़ और चेतन) विविध रूपों में समाहित

है। इसके तीन भाग अनन्त अन्तरिक्ष में समाए हुए हैं ॥२ ॥

४५८६. तावन्तो अस्य महिमानस्ततो ज्यायांश्च परुषः ।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥

विराट पुरुष की महिमा अति विस्तृत है । इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी समाए है । तीन भाग

अनन्त अन्तरि में स्थित हैं ॥३ ॥

४५८७.पुरुष एवेदं सर्वं यद्‌ भूतं यच्च भाव्यम्‌ । उतामृतत्वस्येश्वरो यदन्येनाभवत्‌ सह ॥४ |

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट्‌ पुरुष ही है । इस अमर जीव- जगत्‌ के भी वही स्वामी

हैं। जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते है, उनके भी वही स्वामी हैं ॥४ ॥

४५८८. यत्‌ पुरुषं व्यदधु; कतिधा व्यकल्पयन्‌ ।

मुखं किमस्य किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥५ ॥

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट्‌ पुरुष का ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते है । वे उसको कितने

प्रकार से कल्पना करते है ?ठसका मुख क्या है ? भुजाएँ , जंघाएँ और पाँव कौन से हैं ? शरौर संरचना में वह

पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ॥५ ॥

४५८९. ब्राह्मणो ऽस्य मुखमासीद्‌ बाहू राजन्यो ऽभवत्‌ ।

मध्यं तदस्य यद्‌ वैश्य: पदां शूद्रो अजायत ॥६ ॥

विराट्‌ पुरुष के मुख (से) ज्ञानीजन ब्राह्मण (उत्पन्न) हुए । क्षत्रिय उसके बाहुओं से (समुद्‌ भृत) हए । वैश्य

उसके मध्य भाग एवं सेवाधर्मी शुद्र उसके पैर (से प्रकट) हुए ॥६ ॥

४५९०,चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत । मुखादिन्द्रश्नाग्निश् प्राणाद्‌ वायुरजायत ।

विराट्‌ पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रो से सूर्य, मुख से इन्द्र ओर अगि तथा प्राण से

वायु का प्रकटीकरण हुआ ॥७ ॥

४५९१. नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्‌ तथा लोकां अकल्पयन्‌ ॥८ ॥

विराट्‌ पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष, सिर से चुलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं । इसी

प्रकार ( उसके द्वारा अनेकानेक ) लोकों को कल्पित किया ( रचा ) गया ॥८ ॥

४५९२, विराडग्रे समभवद्‌.विराजो अधि परुषः ।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्‌ भूमिपथो पुरः ॥९ ॥

उस विश्‌ पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । उसी विराट्‌ से समष्टि जीव उत्पन्न हुए । वही देहधारी रूप

में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, तत्पश्चात्‌ शरीर धारिर्यो को उत्पन्न किया ॥९ ॥

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