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आचारकाण्ड ]

* ज्चर-तिदात *

२१९

4.

एक दिन शरीरपर अपना पूर्णं अधिकार कर लेता है) और

उसी दोषके कारण वह ज्वर प्राणीरमे संतापादिके कर्टोको

उत्पन्न करता है। ऊतः प्राणीको प्रयत्पर्वक यथोपयारसे

उस ज्वरका विनाश कर देना चाहिये, अन्यथा वह असाध्य

हो जाता है। ज्वरका सामान्य लक्षण तो यही है कि वह

शरौरमें तापसे युक्त होकर अनुभूत होता है।

विषमगतिसे प्रारम्भ होनेबाला ज्वर्‌ विषम कहा जाता

है। यह विषम ज्वर मध्यरात्रिकालतक अपने पूर्ण वेगमें

रहता है। उसके बाद उसकी गति और शक्ति दोनों मन्द हो

जाती है। उसी कालके अनुसार वह शरीरके रसादिपर

अपने दोषका प्रभाव डालता है और धीरे-धीरे निष्म्रभावी

होता है। ऐसा प्रकुपित दोष प्राणीकों अधिकतम समयतक

अस्वस्य रखता है। जैसे भूमिमें जलसे सिंचित बोज

अंकुरणके लिये समयको प्रतीक्षा नहीं करता, वैसे ही

(यात-पित्त तथा कफ़जन्य) दोषका बीजरूप स्वयंको

शरीरमें प्रकर करनेके लिये समयकौ प्रतीक्षा नहीं करता।

जिस प्रकार विष वेगपूर्वक शरीरके आमाशयमें जाकर

बलवान्‌ होकर क्रुद्ध हौ उठता है, उसी प्रकार शरीरमें

स्थित दोष भी यथासमय शक्ति-सम्पन्न होकर स्वास्थ्यपर

क्रोध करता है। इसी प्रकार सततादि ज्वर भी शरीरमें

विषम भावको प्राप्त कर लेते हैं।

अधिक' कष्टका होना, शरीरका भारी लगना, दीनता,

अङ्ग-भङ्ग (शरीरका टूटना), जैंभाई, अरुचि, वमन और

श्वासका फूलना आदि ये दोष सभी रसगत ज्वर होते हैं।

जब ज्र रक्तगत' संशित हो जाता है तो उस अवस्थामें

रोगीको रक्तका वमन, प्यास, रूक्षता, ऊष्णता, शरीरपर

कछरोटी-छोटौ पौटिकाओं (दानो) -का निकलना, दाह,

लालिमा, भ्रम, मंद तथा प्रलापका उपद्रव होता है। मांस

और मेदा ज्वरके संत्रित होनेपर तृष्णा, ग्लानि, कान्तिमन्दता,

अन्तदि, भ्रम, अन्धकारदर्शन, दुर्गन्ध, गात्रविक्षेपका दोष

उत्पन्न हो जाता है। ज्वकके अस्थिगत होनेपर पसीना,

अधिक प्यास, वमन्‌, दुर्गन्धिको प्रतौति, चिड़चिड़ापन,

प्रलाप, ग्लानि तथा अरुचि एवं हड्डियोंमें तोड़ने-जैसी पोड़ा

होती है। ज्वरके मज्नागत हो जानेपर उक्त दोष तो होते

१-मांधव निर ज्वर ४८- ५४॥ रे-सु०्3>अ> ३९, चण्चिए्अ० ३ "

ही हैं, उसके अतिरिक्त श्रास, अज़विक्षेप, अस्पष्ट-ध्यनि,

बाह्य शीतलता और हिचकीके दोषकी प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

शुक्रमें दोषके संत्रित होनेपर रोगीकों दिनमें भी अन्धकार

दिखायी देता है, शरीरके मर्मोमें छेदने-जैसी पीड़ा होती है।

जननेन्द्रियके स्तब्ध होनेपर निरन्तर उससे वोर्य बहता रहता

है । प्रायः ऐसी अवस्थामें शुक्रगत हो जानेपर रोगीकी मृत्यु

होती है। वस्तुतः रस, रक्त, मांस, मेद तथा मज्जागत--ये

पाँचों ज्वर उत्तरोत्तर दुस्साध्य होते हैं।

मन्द ज्वर होनेपर सम्पूर्ण शरीर कफद्वारा भारीपनके

दोषसे संलिप्त रहता है। रोगी प्रलाप करता है, उसको

शीतलताकी अनुभूति होती है तथा उसके सभी अङ्ग

शिथिल हो जाते हैं। जव शरीरमें नित्य ही मन्द ज्वर होता

है तो शरीरमें सूखापत रहता है, रोगी शीतलताका अनुभव

करता है और शरीरमे दुर्बलता आ जाती है तथा श्लेप्माकी

अधिकता हो जाती है।

जिस ज्वरमें शरीर हल्दीके वर्णका हो जाता है और

पेशाब भी पीला हो जाता है, उसको हरिद्रक ज्र कहा

जाता है, यह यमके समान मारनेवाला होता हैं।

जिसके शरीरम कफ और बात समान रूपमें रहते हैं

तथा पित्तकी कमी होती है, उसमें यह ज्वर दिनर्ये यन्द वेगसे

एवं रात्रिमें तेज हो जाता है तथा इसे रात्रिग्वर कहते हैं।

व्यायामके कारण दिवाकरके शक्ति संचय न करनेसे

जब रोगीका शरीर शुष्क हो जाता है तो वातकी अधिकताके

कारण रोगीके शरीरमें सदा रात्मे ज्वर रहता है, उसे

पौर्वरत्रिक ज्वर कहा जाता है।

इस ज्वरमें श्लेष्मा पिक्तके नीचे आमाशयमें स्थित

रहनेपर आत्मस्थ होकर रोगीका आधा शरीर शीतल और

आधा कष्ण रहता है। ज्वरके समय रोगौके शरौरमें जब

पित्त परिव्याप्त रहता है तथा श्लेष्मा अन्तमें स्थित रहता

है। इसलिये उसका शरीर ऊष्ण और हाथ-पैर ठंडे रहते

हैं। रस और रक्तमें आश्रित तथा मांस एबं मेदामें स्थित ज्वर

साध्य है। हड्डी और मज्ञामें स्थित ज्वर कष्ट-साध्य है । ज्वर

जिस-जिस अड्भमें रहता है, उसे कान्तिहीने कर देता है।

इस ज्वरमें रोगी संज्ञाहीन, ज्वरके येगसे अर्त और

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