१९.९ यजुवेंद संहिता
१०८२.आहे पितृन्त्सुविदत्रां अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः । वर्हिषदो ये स्वधया
सुतस्य भजन्त पित्वस्त ऽ इहागमिष्ठाः ॥५६ ॥
हम विविध ज्ञानो के उत्तम ज्ञाता, अपने पितरो के शुभ ज्ञान को ग्रहण करें । व्यापक परमेश्वर के शाश्वत
गतिशील सृष्टि-चक्र के क्रम को समझें । कुश के आसन पर अधिष्ठित स्वधा (पितरो के निमित्त प्रदत्त अन्न आदि)
युक्त सोमरस का पान करने वाले हमारे सभी पित्र इस यज्गस्थल पर पधार ॥५६ ॥
१०८३.उपह्ताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । त ऽ आ गमन्तु त 5 इह
श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान् ॥५७॥
जो सोम की इच्छा करने वाले कुशादि पर विराजित अति प्रिय पितर हैं, उनका हम इस यज्ञ म आवाहन
करते है । वे इस यज्ञ में पधार । हमारे वचनों को सुनें । पिता की भाँति वे हम पुत्रों को प्रेरक उपदेश करे और
हमारी रक्षा करें ॥५७ ॥
१०८४.आ यन्तु नः पितरः सोम्यासोग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानैः । अस्मिन् यज्ञे स्वधया
मदन्तोधि ब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मान् ॥५८ ॥
जो सोम के समान सौप्य प्रवृत्ति वाले, अग्निवत् तेजस्विता धारण करने वाले हमारे पितर हैं, वे देवों के लिए
दिव्यमार्ग से इस यज्ञ में पधारें ।यहाँ स्वधा से सन्तुष्ट होकर हमें दिव्य ज्ञान का उपदेश करें और हमारी रक्षा करे ।
१०८५. अभ्निष्वात्ताः पितर पुग गच्छत सदःसदः सदत सुप्रणीतयः । अत्ता हवी& षि
प्रयतानि बर्हिष्यथा रयि ५ दधातन ॥५९॥
हे अग्निवत् तेजस्वी पितृगण ! आप हमारे यज्ञानुष्ठान मे पधारें और उत्तम रीति से संस्कारित सर्वोच्च स्थान
में प्रतिष्ठित होकर अति प्रयल से सिद्ध हुए हविष्यात्रो को ग्रहण करें । फिर कुश-- आसनों पर विराजित आप,
हम याजकों को वीर-पराक्रमो सन्ताने ओर धन-धान्य आदि महान् श्रयो को प्रदान करें ॥५९ ॥
१०८६.येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभ्यः
स्वराडसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयाति ॥६० ॥
जो अग्नि संस्कार से ऊर्ध्वगति को प्राप्त हुए पितर हैं अथवा जो अभी ऊर्ध्वगति को प्राप्त नही हुए हैं,
चुलोक के मध्य विद्यमान वे सब पितर स्वधा-संञ्ञक अन्न पाकर आनन्दित होते हैं । उन सभी को स्वयं विरार्
परमात्मा, मनुष्य के लिए प्राप्त होने वाले शरीर को कर्मफल कौ मर्यादा के अनुसार प्रदान करते हैं ॥६० ॥
१०८७, अग्निष्वात्तानृतुमतो हवामहे नाराश से सोमपीथं यऽ आशुः। ते नो विप्रासः
सुहवा भवन्तु वय स्याम पतयो रयीणाम् ।६१ ॥
अग्नि के माध्यम से ऊर्ध्वगति को प्राप्त हुए पितर (अग्नि विद्या के ज्ञाता-पितर) जो यज्ञादि कर्मो मे सोम
पीने वाले हैं, उत्तम पुरुषों के योग्य प्रशंसा करते हुए हम उनका आवाहन करते ह । वे ज्ञान-सम्पन्न पितर हमारे
लिए घन-धान्यादि के रूप में अपार वैभव प्रदान करें ॥६१ ॥
१०८८. आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्च । मा हि ४ सिष्ट पितरः केन
चिन्नो यद्र 5 आगः पुरुषता कराम ॥६२॥
हे सम्पूर्ण पितरो ! हम लोग दायें घुटने को टेककर (दनुमान् मुद्रावत्) बैठकर आप सनका सत्कार करते
हैं। आप हमारे यज्ञ कर्मों की उत्तम समीक्षा कर अपने अभिमत प्रकट करें । कदाचित् यज्ञ-कर्मों के पुरुषार्थ में
कोई त्रुटि हो जाए, तो आप हम याजकों को किसी भी प्रकार से हिंसित न करें, अपितु हमारी रक्षा करें ॥६२ ॥