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सो मैंने तुम्हें बह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस

चरित्रकी बड़ी प्रशंसा करते हैं॥ ४४ ॥ यह धन, यश

और आयुको वृद्धि करनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त

भद्गलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त

हो सकता है। यह देवत्वकी प्राप्ति करानेवाला, बड़ा ही

प्रशेसनीय और समस्त पार्पोका नाश करनेवाला

है ॥४५॥ भगवद्भक्त ध्रुवके इस पवित्रे चरित्रकों जो

श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान्‌की भक्ति प्राप्त

होती है, जिससे उनके सभी दुःखोंका नाश हो जाता

है॥४६॥ इसे श्रवण करनेवालेको शीलादि गुणोकौ

प्राप्ति होती है जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्वकी प्राप्त

करानेवाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज

प्राप्त होता है और मनस्वियोंक्रा मान बढ़ता है ॥ ४७ ॥

पवित्रकीर्ति धुवजीके इस महान्‌ चरित्रका प्रातः और

सायंकाल ब्राह्मणादि द्विजातियोंके समाजमें एकाग्र चित्तसे

कोर्तन करना चाहिये ॥ ४८ ॥ भगवानके परम पवित्र

चरणोंकी शरणमे रहनेवाला जो पुरुष इसे निष्कामभावसे

पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय,

व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवास्के दिन श्रद्धालु

पुरुषोको सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मामें ही

सन्तुष्टं रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है ॥ ४९-५० ॥

यह साक्षात्‌ भगबद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो

लोग भगवन्मार्गके मर्मसे अनभिज्ञ हैं--उन्हें जो

कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु

पुरुषपर देवता अनुग्रह करते हैं॥ ५१ ॥ धुवजीके कर्म

सर्वत्र प्रसिद्ध ओर परम पवित्र हैं, वे अपनी

बाल्यावस्थामें ही माताक घर और खिलौनोंका मोह

छोड़कर श्रीविष्णु-भगवान्‌की शरणमे चले गये थे।

कुरुनन्दन ! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हे

सुना दिया॥ ५२॥

ऊँ के के के के

तेरहवाँ अध्याय

ध्ुववंशका वर्णन, राजा अङ्कका चरित्र

श्रीसृतजी कहते हैं--शौनकजी ! श्रीमैत्रेय मुनिके

मुखसे धुवजीके विष्णुपदपर आरूढ़ होनेका वृतान्त

सुनकर विदुरजीके हृदयमें भगवान्‌ विष्णुकी भक्तिका

उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेयजीसे प्रश्न

करना आरम्भ किया॥ १॥

बिदुस्जीने पूछा--भगवत्परायण मुने ! ये प्रचेता

कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंशमें प्रसिद्ध

थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था 7 ॥ २॥ भगवानके

दर्शनसे कृतार्थं नारदजी परम भागवत हैं--ऐसा मैं

मानता हूँ। उन्होंने पाञ्ररत्रका निर्माण करके श्रीहरिकों

पूजापद्धतिरूप क्रियायोगका उपदेश किया है॥३॥

जिस समय प्रचेतागण स्वधर्मका आचरण करते हुए

भगवान्‌ यज्ञेश्रकी आराधना कर रहे थे, उसी समय

भक्तप्रवर नारदजीने धुवका गुणगान किया था॥४॥

ब्रह्ममू! उस स्थानपर उन्होंने भगवान्‌की जिन-जिन

लीला-कथाओंका वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूपसे

मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुननेक बड़ी इच्छा है ॥ ५ ॥

श्रीपैत्रेयजीने कहा--विदुरजी ! महाराज धुबके

बन चले जानेपर उनके पुत्र उत्कलने अपने पिताके

सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासनको अस्वीकार कर

दिया ॥ ६॥ वह जन्मसे ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य

और समदर्शी था तथा सम्पूर्ण लोकॉंको अपनी

आत्पामें और अपनी आत्माको सम्पूर्ण लोकॉमें स्थित

देखता था ॥ ७ ॥ उसके अन्तःकरणका वासनारूप मल

अखण्ड योगाग्निसे भस्म हो गया था। इसलिये वह

अपनी आत्माकों विशुद्ध बोधरसके साथ अभिन्न,

आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सव प्रकारके

भेदसे रहित प्रशान्त ब्रह्मक्रों ही वह अपना स्वरूप

समझता था तथा अपनी आत्मसे भिन्न कुछ भी नहीं

देखता था॥८-९॥ बह अज्ञानियोंकों रास्ते आदि

साधारण स्थानो निना लपटकौ आगके समान, मूर्ख,

अधा, बहिरा, पागल अथवा गुँगा-सा प्रतीत होता

था--वास्तवमें ऐसा था नहों॥ १० ॥ इसलिये कुलके

बड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियोने उसे मूर्ख और पागल

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