माहेश्वरखण्ड-केवारखण्ड ] # बलिके द्वारा देवताओंकी पराज्य तथा वङिपर वामनजीकी कृपा # ४३
य
महातेजस्वी इन्द्र॒ शचीदेवीके साथ अपनी पुरीम शये ।
यमराजने जुआआरीको पुनः जन्म दिवा | वह अपने किसी
कर्मविपाकसे विरोचनका पुत्र हुआ । उस समय उसकी माता-
का माम सुरुचि था। सुरुचि विरोचनकी रानी थी । उसके
फिताका नाम वृषपर्वा था । वह उदार मनवाल्य जुआरी जब
खुरुचिके गर्भमे आकर स्थित हुआ तबसे प्रहदकुमार विरोचन
तथा सुरुचिका मन धर्म और दानमे अधिक रूगने लगा ।
उसीने गर्भमें आकर माता-पिताकी मति बहुत ही उत्तम कर
दी थी । कैसी बुद्धि बड़े-बड़े मनीपियोंके लिये भी दुर्लभ है।
विरोचनका पुत्र जब गर्भे धा, उसी समय इन्द्र दैत्यराज
विरोचनको मारनेकी इच्छसे मिक्षुक ब्राक्णका रूप धारणकर
उसके घर गये और इस प्रकार बोले--*राजन् ! मुझे अपनी
रुचिके अनुसार कुछ दान मिलना चादिये ।” याच्कष्टी बात
सुनकर विरोचनने हसते हुए. कद्टा--“विप्रवर | यदि आपकी
इच्छा हो तो मैं इस समय अपना मस्तक भी दे सकता हूँ ।
इसके सिवा यह अपना अकष्टक राज्य भी आपको समर्पित
कर दूँगा ।›
विरोचनके ऐसा कह्नेपर इन्द्रने सोच-विचारकर कहा-
(महाभाग ! मुझे अपना मुकुटमण्डित मस्तकं उतारकर दे
दीजिये |! ब्राह्मणरूपधारी इन्द्रके ऐसा कइनेपर प्रह्मादपृत्
विरोचनने यड़ी प्रसल्नताके साथ अपने हो द्वायसे अपना
मस्तक काटकर शीघतापूर्वक इन्द्रको दे दिया । आर्त प्राणियों-
को अपनी शक्तिके अनुसार जो कुछ दिया जाता है; वह
दान मदान् पुण्यका हेतु होता है; उसका फल अक्षय बताया
जाता दे । तीनों लोकमि दानते बढ़कर दूसरी कोई यस्तु नहीं
है ।* विरोचनका वह दान दैत्यः नरेन्द्र तथा नाग--इन
तीनोंके छोकोमें प्रसिद्ध हो गया । पूरवजन्मका वह जुआरी
ही विरोचनका महातेजस्वी पुत्र हुआ । पिताके मरनेपर जब
उसका जन्म हो गया, तब उसकी पतित्रता माताने अपना
शरीर त्याग दिया और बह तत्काल परित्येकको चटी गयी ।
झुक्राचार्यने उसी पुजकों पिताके लिंहासनपर अभिषिक्त
किया । वहीं महायशस्वी कुमार लोकमें बिके नामसे
विख्यात हुआ ।
शम यह बात पहले दी बता भावे हैं कि राजा वलिते
अस्त होकर सम्पूर्ण महावली देवता कश्यपजीके शुभाअमपर
चरे गये थे । देवपुरीमें महायशस्वी वटि जब इस्द्रके पदपर
प्रतिष्ठित हुए, तत्र॒वे अपनी तपस्यासे स्वयं ही सूर्य बनकर
सपने खगे, स्वयं ही इन्द्र, अग्नि और वायुका काम करने
रूगे । महात्मा बलिनि घर्मराजके न रइनेपर भी धर्मछोकका
सच्चाव्न किया । वे स्वयं ही ईशान होकर ईशानकोणमें
विराजमान हुए, । वे ही नेअत्यकरोण और पश्चिममें क्रमशः
निति तथा वरुण हुए. । राजा बलि ही उत्तर दिशामे
धनाध्यक्ष कुबेर बनकर रहने खगे । इस प्रकार वे अकेछे ही
तीनों छोकोंका पालन करते थे । पूर्वजम्ममें जुआरीके रूपमे
रहकर उन्होंने भगवान् झझरका पूजन किवा था। उस
ूर्वाम्याखके ही करण बढि इस जन्मे भी शिव-पूजा-
परावण थे और बढ़े-बढ़े दान किया करते थे एक दिन
श्रीमान् राजा बलि अपने गुरु श॒क्राचार्यके साथ दैत्पेस्द्रोंसे घिरे
हुए. अपनी सभामें कैठे थे। उस समय उन्होंने देत्योंको
सम्बोधित करके कद्ा--शसम्पूर्ण अघुर पाताछ छोड़कर यहीं
मेरे समीप निवास करें । इस कार्यमें विल्म्ब नई होना चाहिये।'
यह सुनकर झुक्राचार्य हँस पढ़े और बलिकों समझाते हुए इस
प्रकार बोछे--सुप्रत ! यदि धुम यहीं आकर नियास करना
चाहते हो तो सौ अश्यमेघ यज्ञोद्वारा अग्निदेषकी आराधना
करो । वह भी यहाँ नरी, कर्भूमि भारतवर्षमें उपस्थित होकर
करो । त कार्यमें वमे विम्ब नहीं करना चाहिये।?
# तदनं च मद्दायुष्यमातेंभ्यो यत्प्रदीयते ।
स्वशक््या सश्च विशिष्य तदानन्त्याथ कल्यों ।
दानात् परतरं नान्यत् श्रिषु लोकेतु विचते ॥
(ष्क मां० के? १८ ॥ ४१-४२ )