पूर्वभाग-प्रधम पाद
आज मेरा यज्ञ सफल हुआ और मेरा यह जीवन
भी सफल हो गया। मैं कृतार्थं हो गया-इसमें
संदेह नहीं है। भगवन्! आज मेरे यहाँ अत्यन्त
दुर्लभ अमोघ अमृतकी वर्षा हो गयो। आपके
शुभागमनमात्रसे अनायास महान् उत्सव छा गया।
इसमें संदेह नहीं कि ये सब ऋषि कृतार्थ हो गये।
प्रभो! इन्होंने पहले जो तपस्या की थी, वह आज
सफल हो गयोी। मैँ कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ, कृतार्थ
हूँ--इसमें संशय नहीं है। अतः भगवन्! आपको
नमस्कार है, नमस्कार है और बारम्बार नमस्कार है।
आपकी आज्ञासे आपके आदेशका पालन करूँ--ऐसा
विचार मेरे मनमें हो रहा है। अतः प्रभो! आप पूर्ण
उत्साहके साथ मुझे अपनी सेवाके लिये आज्ञा दें।
यज्ञमें दीक्षित यजमान बलिके ऐसा कहनेपर
भगवान् वामन हँसकर बोले--' राजन्! मुझे तपस्याके
निपित्त रहनेके लिये तोन पण भूमि दे दो।
भूमिदानका माहात्म्य महान् है। वैसा दान न
हुआ है, न होगा। भूमिदान करनेवाला मनुष्य
निश्चय ही परम मोक्ष पाता है। जिसने अग्निको
स्थापना की हो, उस श्रोत्रिय ब्राह्मणके लिये
थोड़ी-सी भी भूमि दान करके मनुष्य पुनरावृत्तिरहित
ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लेता है। भूमिदाता सब कुछ
देनेबाला कहा गया है। भूमिदान करनेवाला
मोक्षका भागी होता है। भूमिदानकों अतिदान
समझना चाहिये । बह सव पापका नाश करनेवाला
है । कोई महापातकसे युक्त अथवा समस्त पातकोंसे
दूषित हो तो भी दस हाथ भूमिका दान करके सब
पापोंसे छूट जाता है। जो सत्पात्रको भूमिदान
करता है, बह सम्पूर्णं दा्नोका फल पाता है । तीनों
लोकोंमें भूमिदानके समान दूसरा कोई दान नहीं
है। दैत्यराज ! जो जीविकारहित ब्राह्मणको भूमिदान
करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन मैं सौ वर्षो
भी नहीं कर सकता। जो ईख, गेहूँ, धान और
॥.
सुपारीके वृक्ष आदिसे युक्त भूमिका दान करता है,
बह निश्चय ही श्रीविष्णुके समान है । जीविकाहीन,
दद्दर एवं कुटुम्बौ ब्राह्मणको थोड़ी-सी भी भूमि
देकर मनुष्य भगवान् विष्णुका सायुज्य प्राप्त कर
लेता है। भूमिदान बहुत बड़ा दान है। उसे
अतिदान कहा गया है। वह सम्पूर्णं पापका
नाशक तथा मोक्षरूप फल देनेवाला है । इसलिये
दैत्यराज! तुम सब ध्मोकि अनुष्ठानमें लगे रहकर
मुझे तोन पग पृथ्वी दे दो। वहाँ रहकर मैं तपस्या
करूँगा।!
भगवान्के ऐसा कहनेपर विरोचनकुमार बलि
बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ब्रह्मचारी वामनजीको
भूमिदान करनेके लिये जलसे भरा कलश हाथमे
लिया। सर्वव्यापी भगवान् विष्णु यह जान गये कि
शुक्राचार्य इस कलशमें घुसकर जलकी धाराको
रोक रहे हैं। अतः उन्होंने अपने हाथमे लिये हुए.
कुशके अग्रभागको उस कलशके मुखमें घुसेड़
दिया जिसने शुक्राचार्यके एक नेत्रको नष्ट कर
दिया। इसके बाद उन्होंने शस्त्रके समान उस
कुशके अग्रभागको आँखसे अलग किया। इतनेमें
राजा बलिने भगवान् महाविष्णुको तीन पग
पृथ्वीका दान कर दिया। तदनन्तर विश्वात्मा भगवान्
उस समय बढ़ने लगे। उनका मस्तक ब्रह्मलोकतक
पहुँच गया। अत्यन्त तेजस्वी विश्वरूप श्रीहरिने
अपने दो चैरसे सारी भूमि नाप ली। उस समय
उनका दूसरा पैर ब्रह्माण्डकटाह (शिखर)-को छू
गया और अँगूठेके अग्रभागके आघातसे फूटकर वह
ब्रह्माण्ड दो भागे वट गया। उस छिद्रके द्वारा
ब्रह्माण्डसे बाहरका जल अनेक धाराओंमें बहकर
आने लगा। भगवान् बिष्णुके चरणोंकों धोकर
निकला हुआ वह निर्मल गङ्गाजल सम्पूर्ण लोकोंको
पवित्रे करनेवाला था। ब्रह्ाण्डके बाहर जिसका
ठद्रमस्थान है, वह श्रेष्ठ एवं पावन गङ्गानल