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ज्राह्पर्त ] » पञ्ममहायज्ञोंका वर्णन तथा त्रत -उपयासोके प्रकरणमें आहारका निरूफण « ४३

सभी अवस्याओमि पतिके अनुसार ही प्रिय आचरण करना है ओर पतिकी सेवासे सभी सुखो तथा त्रिवर्गको भी प्राप्त कर

चाहिये। इस प्रकार कहे गये सख -वृत्तक्रे भलीभाँति समझकर लेती है" ।

जो खी पिकी सेवा करती है, वह पतिको अपना यना खेती (अ= १०-- १५)

-- र्द 7फे

पञ्चमरहायज्ञोका वर्णन तथा व्रत-उपवासोकि प्रकरणमें आहारका निरूपण एवं

प्रतिपदा तिथिकी उत्पत्ति,

सुमन्तु मुनिने कहा--राजन्‌ ! इस प्रकार लि्योकि

लक्षण और सदाचारका वर्णन करके कऋह्माजी अपने लोक,

तथा ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमोंकी ओर चले गये।

अब गृहस्थोंको कैसा आचरण करना चाहिये, उसे मैं बताता

हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुने

गृहस्थोंको वैवाहिक अग्रिमे विधिपूर्वक गृहाकमॉको

करना चाहिये तथा पश्ममहायज्ञॉका भी सम्पादन करना

चाहिये। गृहस्थोंके यहाँ जीव-हिसा होनेके पाँच स्थान हैं--

ओखली, चक्की, चूल्हा, झाड़ तथा जल रखनेका स्थान । इस

हिसा-दोषते मुक्ति पानेके लिये गृहस्थोंकों पश्षमहायज्ञों--

(१) ब्रह्मयज्ञ, (२) पितृयज्ञ, (३) दैवयज्ञ, (४) भूतयज्ञ

तथा (५) अतिथियज्ञको नित्य अवङ्य करना चाहिये।

अध्ययन करना तथा अध्यापन करना यह ब्रह्मयज्ञ है, तर्पणादि

कर्म पितृयज्ञ है। देवताओंके लिये हवनादि कर्म दैवयज्ञ है।

बलिवैश्वदेव कर्म भूतयज्ञ है तथा अतिथि एवं अध्यागतोंका

स्वागत-सत्कार करना अतिथियज्ञ है---

अथ्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञक्ष॒तर्पणम्‌।

होमो दैवो बलिभौतस्तथाउन्यो अलिधिपूजनम ॥

(ऋष्व १६।७)

--इन पाँच नियमोका पालन करेला गृहस्थी घरमे

रहता हुआ भी पञसृना-दो्षोमे लिप्त नहीं होता । यदि समर्थ

त्रत-विधि ओर माहात्म्य

होते हुए भी वह इन पाँच यज्ञोंक्रो नहीं करता है तो उसका

जीयन ही व्यर्थ है।

राजा झतानीकते पूछा--जिस ब्राह्मणके घरयें

अग्निहोत्र नहीं होता, वह मृतकके समान होता है---यह आपने

कहा है, परंतु फिर वह देवपूजा आदि कार्योको क्यो करे ?

और यदि ऐसी बात है तो देवता, पितर उससे कैसे संतुष्ट होंगे,

इसका आप निराकरण करें।

सुमन्तु मुनि खोले--राजन्‌ ! जिन ब्राह्मणोंके घरमे

अग्निहोत्र न हो उनका उद्धार व्रत, उपवास, नियम, दान तथा

देवताकी स्तुति, भक्ति आदिसे होता रै । जिस देवताकी जो

तिथि हो, उसमे उपवास करनेसे वे देवता उसपर विद्रोषरूपसे

प्रसन्न होते है--

त्रतोपवासनिवयैर्नानादानैस्तथा नृप ।

देवादयो भवन्त्येव प्रीतास्तेष न संशय: ॥

विकोादुपयापतेन तिथौ क्कत महीप ।

प्रीता देवादयस्तेषौ भवन्ति कुरूनन्दन ॥

(जाह्मपर्व १६। १३-१४)

राजाने फिर कहा--महाराज! अब आप

अलग-अलग तिथियोंमें किये जानेवाले व्रतो, तिधि-व्रतोंमें

किये जानेवाले भोजनों तथा उपवासकी विधियोंका वर्णन करें,

जिनके श्रक्णते तथा जिनका आचरण कर संसारसागरसे मैं

१-न कप दुर्भगा नाप सुभ नाम जातितः । र्ययह्मतद्भवत्येष. निर्देशों... रिपुमित्रवत्‌ ॥

स्कीयृत यानुतिष्ठति । पतिकाठध्य॒ स्यू

(बराह्मर्ष १५। १६-- १९, ३२)

[ वर्तमात समयमें पाक्षात््य सभ्यताके प्रभावसे देशमें दूषित और उच्छूजजुलतापूर्ण वातावरण चन गया है। खियोमे सम्बद्ध भविष्यपुराणवत्र यह

उल्लेख रामायण, महाभारत, स्पृतियों तथा अन्य पुराणोंमें भौ उपलब्ध है। आजके विश्वकी सभी समस््याओंका एकम्ब्र मुख्य कारण आचाएका

पतन है, इसका प्रभाव संल्तियोंपर भी पड़ता है। अतः सपमे सदाचाजञापर धिदोष ध्यान देनेकी आवफ्य्कता है ¦ ]

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