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पं० ६ सृ० ३२ (५

३७४. अयोद्धेव दुर्मद्‌ आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्‌ ।

नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६ ॥

अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुवे धक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को

ललकारा और इन्द्रदेब के आघातों को सहन न कर, गिरते हुए, नदियों के किनारो को तोड़ दिया ॥६ ॥

३७५. अपादहस्तो अपृतन्यदिद्धमास्य वन्रमधि सानौ जघान ।

वृष्णो वष्चि: प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयङ्घयस्तः ।७ ॥

हाथ और पाँव के कट जाने पर भी वुत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया । इन्द्रदेव ने उसके पर्वत

सदृश कन्थो पर वज्र का प्रहार किया । इतने पर भौ वर्षा करने में समर्थं इन्धदेव के सम्मुख वह डटा रहा । अन्ततः

इन्द्रदेव के आघातं से ध्वस्त होकर वह भूषि पर गिर पड़ा ॥७ ॥

३७६. नदं न भिन्‍नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्याप: ।

याश्चिद्‌ वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतः शीर्व भूव ॥८ ॥

जैसे नदी की बाढ़ तटों को रलो जाती है, वैसे ही मन को प्रमन करने वाले जल (जल अवरोधक) वृत्र को

लौध जाते हैं । जिन जलो को 'वृत्र' ने अपने बल मे आबद्ध किया था, उन्हों के नीचे "वृत्रे मृत्यु-शैय्या पर पड़ा

सो रहा है ॥८ ॥

३७७. नीचावया अभवद्‌ बृत्रपुत्रेद्दो अस्या अव वधर्जभार ।

उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीदानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९ ॥

त्र की माता झुककर वृत्र का संरक्षण करने लगौ, इद्धदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वत्र पर सो गयी,

फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया । उस समय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने वदु

के साथ सोती है ॥९ ॥

२३७८. अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्‌।

वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१० ॥

एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रान्त (मेघरूप) जल-प्रवाहों के मध्य वृत्र का अनाप शरीर छिपा रहता रै ।

वह दीर्घं निद्रा में पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता है ॥१० ॥

[जल युक्त बादलों के नीचे निष्किय बादलों को वृत्र का अनाम शरीर कहा गया प्रतीत होता है ।]

३७९. दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गाव: ।.

अपां बिलमपिहितं यदासीद्‌ वृत्रं जघन्वां अप तद्ववार ॥११ ॥

"पणि" नामक असुर ने जिस प्रकार गौओ अथवा किरणों को अवरुद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहों

को अगतिशौल बृत्र ने रोक रखा घधा | वृत्र का वध करके वे प्रवाह खोल दिये गये ॥१६॥

३८०. अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एक: ।

अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून्‌ ॥१२ ॥

हे इनद्रदेव ! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूँछ हिलाने को तरह. बहुत आसानी

से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया । हे महाबली इन्द्रदेव ! सोप और गौओं को जीतकर आपने

(वत्र के अवरोध को नष्ट करके) गंगादि सातो सरिताओं को प्रवाहित किया ॥१२ ॥

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