आचारकाण्ड ]
* सर्पोंके विष हरनेके उपाय तथा दुष्ट उपब्बोंको दूर करनेके मन्त्र «
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रात या दिनमें बृहस्पतिका भोगकाल आनेपर सर्प,
देर्योका भी अन्ते करनेवाला हों जाता है। अत: इस कालप
सर्पद्वारा काया गया प्राणी बच नहीं सकता है। दिनमें शनि-
ग्रहकी वेलाके आनेपर राहु अशुभ धर्मसे संयुक्त रहता है।
अतः वह अपने यामार्ध भोग और सम्धिकालकी अवस्थितिं
काल अर्थात् यमराजकी गतिके समान गतिमान् रहता है।
रात्रि और दिनका मान लगभग तौस-तीस घटोका
होता है। इस मामके अनुसार निर्मित कालचक्रमें चन्द्रमा
प्रतिपदः तिथिको पादाजुष्ठ, द्वितीयाकों पैरसे ऊपर, तृतोयाको
गुल्फ, चतुर्धोकों जानु, पञ्जमीको लिङ्ग, पष्ठीको नाभि,
सप्तमीकों हृदय, अष्टमीको स्तन, नवरमीको कण्ड, दशमौको
नासिका, एकादशौको नेत्र, द्वादशौको कान, त्रयोदशौको
भह, चतुर्दशीको शंख अर्थात् कनपटी तथा पूर्णिमा एवं
अमावस्याको मस्तकपर निवास करता है। पुरुषके दक्षिणाडुमें
तथा स्त्रौके बरामभागमें चन्द्रकी स्थिति होती है। चन्द्रको
स्थिति जिस अड्भमें होती है, उस अङ्गे सर्पके डसनेपर
प्राणी जीवित बच सकता है। यद्यपि सर्पदंशसे शरोरमें
उत्पन्न हुईं मूच्छां शीघ्र समाप्त होनेवाली नहों है, फिर भो
शरीर-मर्दनसे बह दूर हो सकती है।
स्फटिकके समान निर्मल ' ॐ हंसः ' नामक बीजमन्त्र,
साधकका परम मन्त्र है। विषरूपी पापको नष्ट करनेमें
समर्थ इस बौज-मन्त्रका प्रयोग सर्पदंशसे मूर्छित प्राणीपर
करना चाहिये। इसके चार प्रकार हैं। प्रथम मात्रा बीज
बिन्दुसे युक्त है। दूसरा पाँच स्वरोंसे संयुक्त है। तीसरा छः
स्वरोंवाला और चौथा विसर्गयुक्त है। प्राचीन समयमें पक्षिराज
गरुड़ने तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये "ॐ कुरु कुले स्वाहा”
इस महामन्रको आत्मसात् किया था। अतः सर्प एवं
सर्पिणियोंके विषको शान्त करनेके लिये इच्छुक व्यक्तिको
मुखमें " ॐ कण्ठमें ' कुरु! दोनों गुल्फोंमें 'कुले' तथा
दोनों पैरोंमें ' स्वाहा ' मन्रका न्यास करना चाहिये। जिस
रमे उपर्युक्त मन्र भली प्रकारे लिखा रहता है, सर्प उस
घरको छोड़कर चले जाते है । जो मनुष्य एक हजार बार
इस मन्त्रके जपसे अभिमन्त्रित सूत्रको कानप्र धारण करता
है, उसको सर्प-भय नहीं रहता। जिस घरमें इस मन्त्रसे
अभिमन्त्रित शर्कराखण्ड फेंक दिये जाते हैं, उस घरकों भी
सर्प छोड़ देते हैं। देवताओं और असुरोंने इस मन्त्रका सात
लाख जप करके सिद्धि प्राप्त की थी।
इसी प्रकार एक अष्टदल पद्मका रेखाङ्कनकर उसके
प्रत्येक दलपर इस--' ॐ सुवर्णरेखे कुक्कुटविग्रहरूपिणि
स्वाहा '-- मन्त्रके दो-दो वर्ण लिखे तथा ' ॐ पक्षि स्वाहा"
इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलके द्वारा स्नान करानेसे विषविद्वल
प्राणीका विष दूर हो जाता है।
"ॐ पक्षि स्वाहा” इस मने द्वारा अज्भुष्ट-भागसे
लेकर कनिष्ठापर्यन्त करन्यास तथा मुख-इदय-लिङ्ग और
वैरो अज्ञन्यास करें तो विषधर नाग ऐसे मनुष्यकी
छायाको स्थप्रमें भी लघ नहीं सकता। जो मनुष्य इस
मन्त्रका एक लाख जप करके सिद्धि प्रात कर लेता है, वह
अपनी दृष्टिमाजसे व्यथित व्यक्तिके शरीरमें व्याप्त बिषको
नष्ट कर देता है।
"ॐ हीं हाँ ही भि( भी ) रुण्डायै स्वाहा '- इस मन्त्रका
जप स्पर्शित व्यक्तिके कानमें करनेपर विषका प्रभाव
क्षीण हो जाता है।
यदि दोनों पैरके अग्रभागमें ' अ ओ", गुल्फे 'इ ई" जानुमें
"ठ ऊ", कटिमें 'ए ऐ', नाभिमें ' ओ", इृदयमें 'औ', मुखमें
'अं' तथा मस्तकमें 'अः' वर्णका स्थापतकर "ॐ हंसः '
औजपमजञके सहित न्यास करके साधक इस बौजमनत्रका ध्यान-
पूजन और जप करे तो वह सर्प-विषकों दूर कर सकता है।
“मैं (स्वयं) गरुड हं" यह ध्यान (भावना) करके
साधकको विष-शमनका कार्य करना चाहिये। हं" बीजमन््का
शरीरे विन्यास विधादिका हरण करनेवाला कहा गया है।
याम हाथमें "हंसः" मन्रका न्यास करके जो साधक इस
मन्बरका ध्यान-पूजन और जप करता है, यह सर्प-विषकों
दूर करनेमें समर्थ होता है; क्योंकि यह मन्त्र विषधर नागोंके
नासिकाभाग और मुँहको भ्रास-नलिकाकों भी रोकने पूर्ण
समर्थ है। यह मन्त्र शरीरकी त्वचा-मांस आदियें व्याप्त
सर्प-विषको भी विनष्ट कर देता है।
सर्पदेशसे मूर्च्छित प्राणीके शरीरमें ' ॐ हंसः ' मन्त्रका
न्यास करके भावान् नीलकण्ठ आदि देवॉका भी ध्यान
करना चाहिये। ऐसा करनेसे यह मन्त्र अपनी वायु शक्तिके
द्वारा उस सम्पूणं विपका हरण कर लेता है।
प्रत्यङ्गिराकौ जड़को चावलके जलके साथ पौसकर
पौनेसे विषका प्रभाव दूर हो जाता है! पुनर्नवा, प्रियंगु,