मं०१ सू० ५६ ८१
६५७. स हि श्रवस्युः सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन् ।
ज्योतीषि कृण्वन्नवृकाणि यज्यवेऽव सुक्रतुः सर्तवा अपः सृजत् ॥६ ॥
वे यश की इच्छा वाले, उत्तमकर्मा इन्द्रदेव अपने तेजस्वौ बलों से शत्रुओं के घरों को नष्ट करते हुए वृद्धि
को पराप्त हुए, सूर्यादि नक्षत्रों के प्रकाश को रोकने वाले आवरणों को दूर किया और याजक के लिए जलों के प्रवाह
को खोल दिया ॥६ ॥
६५८. दानाय मनः सोपपावन्नस्तु तेऽर्वाञ्चा हरी वन्दनश्रुदा कृधि।
यमिष्ठासः सारथयो य इन्द्र ते न त्वा केता आ दभ्नुवन्ति भूर्णयः ॥७ ॥
सोषपान करने वाले हे इन्द्रदेव ! आपका मन दान के लिये प्रवृत्त हो । आप हमारी स्तुतियाँ सुनते है । अपने
अश्वो को हमारे यज्ञ की ओर अभिमुख करें । हे इन्द्रदेव ! आपके ये सारवी नियंत्रण में पूर्ण कुशल हैं, जिससे
ये प्रबल अयरोधों से भी विचलित नहीं होते ॥७ ॥
६५९. अप्रक्षितं वसु बिभर्षि हस्तयोरषाव््हं सहस्तन्वि श्रुतो दथे ।
आवृतासे5वतासो न कर्तृभिस्तनूषु ते क्रतव इन्द्र भूरय: ॥८ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप अपने दोनो हाथों में अक्षय धन को धारण करते हैं । आपके शरीर में प्रचण्ड बल स्थापिते
है । स्तुति करने वालों ने आप के शरीरों को बढ़ाया है । मनुष्यो से धिरे कुएँ के समान आपके शरीर प्रसिद्ध कर्मो
से घिरे हुए हैं ॥८ ॥
[इत ऋचा पे लिखा है कि श्रेष्ठ करो से इन्द्देव के शरीर घिरे रहते हैं। संगठक सत्ता को वेद में इनदरेव कहा गया है ।
जिन शरोर मे इन्व का आयित है, उनकी शक्तियाँ संगठित रहती है । विस्वगी हुई शक्ति वाले शरीरो से करमो की सिद्धि
ऋ होती, संगठित शक्ति युक्त शगीरे से कर्म सिद्ध होते हैं. अतः वे शरीर कमो से घिरे रहते है । |
[सूक्त - ५६ ]
[ऋषि - सव्य आड्रिरस । देवता- इन्दर । छन्दे -जगती । |
६६०. एष प्र पूर्वीरव तस्य चप्रिषो5त्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः ।
दक्षं महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम् ॥९ ॥
जगत् का पोषण करने वाले इन्द्रदेव यजमान के बहुसंख्यक सोमपात्रों को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारते है ।
3 यजमान, सुन्दर अश्वो से योजित. दीप्तिमान् स्वर्णिम रथ में घिरे बैठे महान् बलवान् इन्द्रदेव को सोम प्रिलाते
॥१॥
६६१. तं गूर्तयो नेमन्निषः परीणसः समुद्रं न संचरणे सनिष्यवः ।
पतिं दक्षस्य विदथस्य नू सहो गिरिं न वेना अधि रोह तेजसा ॥२ ॥
जिस प्रकार धन के इच्छुक समुद्र की ओर प्रस्थान करते हैं, उसी प्रकार हविदाता यजमान इन्द्रदेव की ओर
हवि ले जाते हुए विचरण करते है । हे स्तोता ! जैसे नदियां पहाड़ को घेरती हुई चलती है. वैसे ही आपकी स्तुतियाँ
महान् बलों के स्वामी, यज्ञ के स्वामी, संघर्षक इन्द्रदेव को अपनी तेजस्विता से आवृत्त कर लें ॥२ ॥
[ वैदिक युग पे सपुद्द से रत्न आदि प्राप्त करने की विद्या का जन था ।]