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अध्याय २५ )

सष्टवान्‌ लोकभूतानां सृष्ट सुषा स्थितस्य च।

आविर्यभूव मनसि विश्वकर्मा प्रजापतिः ॥ ५२

अनन्तकृष्णयोस्तेन द्वे रूपे निर्मिते शुभे।

विमानस्थो यथापु्व मया दुष्टौ जले नृप ॥ ५३

तथैव तं ततो भक्त्या सम्पूज्याहं हरिं स्थितः ।

तत्प्रसादात्तप: श्रेष्ठ मया ज्ञानमनुत्तमम्‌ ॥ ५४

लब्ध्वा मुक्तिं च पश्यामि अविकारक्रियासुखम्‌।

तदहं ते प्रवक्ष्यामि हितं नृपबरेश्वर ॥ ५५

विसृज्यैतत्तपो घोरं पुरीं ब्रज निजां नृप।

प्रजानां पालनं धर्मस्तपश्चैव महीभृताम्‌ ॥ ५६

विपां प्रेषयिष्यामि सिद्धद्विजगणाव्वितम्‌ ।

तत्राराधय देवेशं बाहार्थैरखिलैः शुभैः ॥ ५७

जारायणमनन्ताख्ये शयानं क्रतुभिर्यजन्‌।

निष्कामो नृपशार्दूल प्रजा धर्पेण पालय ॥ ५८

प्रसादाद्वासुदेवस्य पुक्तिस्ते भविता नृप।

इत्युक्त्वा तं जगामाथ ब्रह्मलोकं पितामहः ॥ ५९

इक्ष्वाकुश्चिन्तयन्नास्ते पश्रयोनिवचो द्विज।

आविर्बभूव पुरतो विमान तन्महीभृतः॥ ६०

ब्रह्मदत्तं द्विजयुतं माधवानन्तयों: शुभम्‌।

तं दुष्टरा परया भक्त्या नत्वा च पुरुषोत्तमम्‌ ॥ ६१

ऋषीन्‌ प्रणम्य विप्रांश्च तदादाय चयौ पुरीम्‌।

पौरैर्जनीएच नारीभिदष्ट: शोभासमन्वितैः ॥ ६२

लाजा विनिक्षिपद्धिश्च नीतो राजा स्वकं गृहम्‌।

स्वमन्दिरे विशाले तु विमानं वैष्णवं शुभम्‌॥ ६३

डृक्ष्वाकुकी तपस्या और ब्रह्माजीद्वारा विष्णुप्रलिपाकौ प्राप्ति

८९

त्यागकर इस जगतूके प्राणिर्योकी सृष्टि कौ । सृष्टि करके

स्थित होनेपर मेरे हृदयमें प्रजापति विश्वकर्माका प्राकट्य

हुआ। उन्होने “ अनन्त' नासक शेषनाग और भगवान्‌

विष्णुकी दो चमकौली प्रतिमां बनायीं। नरेश्वर! मैंने

पहले जलके भीतर शेष-शय्यापर जिस रूपमें देख चुका

था, उसी रूपमे भगवान्‌ श्रोहरिको वह प्रतिमा बनायी

गयी थी। तब मैं उन श्रीहरिके उस श्रीविग्रहकी भक्तिपूर्वक

पूजा करके और उन्हींके प्रसादसे श्रे|्ठ तपरूप परम उत्तम

ज्ञान प्राप्त करके विकाररहित नित्यानन्दमय मोक्ष-सुखका

अनुभव करने लगा॥ ५१-- ५४१८२ ॥

"'राजगजेश्वर! इस समय पैं तुम्हारे हितकी बात बता

रहा हूँ, सुनो-राजन्‌! इस घोर तपस्याकों छोड़कर अब

अपनी पुरीको लौट जाओ। प्रजाओंका पालन करना हो

राजाओंका धर्म तथा तप है। मैं सिद्धों और ब्राह्मणोंसहित

उस विमानको, जिसपर भगवान्की प्रतिमा है, तुम्हारे

पास भेजूँगा। उसीमें तुम सुन्दर बाह्य उपचारा उन

देवेश्वरकौ आराधना करो। नृपश्रेष्ठ | | तुम यज्ञोंद्वारा अनन्त '

नामक शेषनागकी शब्यापर शयन करनेवाले भगवान्‌

नारायणका निष्कामभावसे यजजोद्रारा आराधन करते हुए

धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो। नृप! भगवान्‌ बासुदेवको

कृपासे अवश्य ही तुम्हारी मुक्ति हो जायगी।'” राजासे

यों कहकर लोकपितामह ब्रह्माजी अपने धामकों चले

गये॥ ५५-५९॥

द्विज! ब्रह्माजौके चले जानेपर राजा इक्ष्बाकु उनकी

यातोंपर विचार ही कर रहे थे, तबतक उनके समक्ष वह

विष्णु और अनन्तकी प्रतिमाओंका शुभ विमान, जिसे

ब्रह्माजोने दिया था, सिद्ध ब्राह्मणोंसहित प्रकट हो गया।

उन भगवान्‌ पुरुषोत्तमका दर्शन करके उन्होंने बड़ों भक्तिके

साथ उन्हें प्रणाम किया तथा साथमें आये हुए ऋषियों

एवं ब्राह्मणोंकों भी नमस्कार करके वे उस विमानको

लेकर अपनो पुरीकों गये। वहाँ नगरके सभी शोभायमान

स्त्री-पुरुषोंने राजाका दर्शन क्रिया और लावा छीटते हुए

बे उन्हें राजभवनमें ले गये। राजानि अपने विशाल मन्दिस्में

उस सुन्दर वैष्णव -विमानकों स्थापित किया और साथ

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