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आह्मपर्वं ]

* रेथयात्रामे विश्न होनेपर एवं गोचरपे दुष्ट ग्रहोंके आ जानेपर झाच्तिका विधान ५

८१

श्रद्धारहित व्यक्तिकों रथके ऊपर नहीं चढ़ना चाहिये, क्योंकि

जो श्रद्धारहित व्यक्ति रथपर आर्ट होता है, उसकी संतति

नष्ट हो जाती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैदयको ही रथके वहन

करनेका अधिकार है । अपने स्थानसे चलकर सर्वप्रथम रथको

उत्तर द्वारपर ले जाना चाहिये | वहाँ एक दिनतक रथकी पूजा

करें, विविध नृत्य-गीतादि-उत्सव, वेदपाठ तथा पुराणोंको

कथा होनी चाहिये । वहाँ ब्राह्मण-भोजन भी कराना चाहिये।

नवमीके दिन रथ चत्म्रकर पूर्वद्वारपर ले जाय, एक दिन वहाँ

रहे। तीसरे दिन दक्षिण द्वारपर रथ ले जाय तथा चौथे दिन

पश्चिमद्वारपर रथ ले जाय । वहाँसे नगरके मध्यमें रथ ले जाय,

----उ्भ्-- |

वहाँ पूजन और उत्सव करे, दीपमालिक प्रज्वलित करे,

ऋहय्णोको दान दे और भोजन कराये । अनन्तर वहसे मन्दिरमे

रथको साना चाहिये । यहाँ नगरके सभी रोग मिरकर्‌ पूजन

और उत्सव कर । एक दिन-एत रथमें ही प्रतिमा रहे । दूसरे

दिन भगवान्‌ सूर्यकी प्रतिमाको रथसे उतारकर बड़ी धूमधामसे

मन्दिरमे स्थापित करे। इस प्रकार सप्तमीसे त्रयोदशीतक

रथयात्रा होनी चाहिये और चतुर्दशोको प्रतिमा पूर्व स्थानम

स्थापित कर दे । इस रथयाश्रके करनेसे सभी विध्न-बाधाएँ

निवृत्त हो जाती है ।

{अध्याय ५५)

रथयात्रा विघ्न होनेपर एवं गोचरे दुष्ट ग्रहोके आ जानेपर

शान्तिका विधान और तिलकी महिमा

भगवान्‌ रुद्रने पृछा -- व्रह्मन्‌ ! आप पुनः रथयात्राका

यर्णन करें ।

ब्रह्माजीने कहा--रुद्र ¦ रथको घौरे-धीरे सममार्गपर

चत्प्रया जाय, जिससे रथको घक्ा आदि न लगने पाये ।

मार्गकी शुद्धिके लिये प्रथम प्रतीहार ओर दष्डनायक उस

मार्ममें जार्यै । पिगल, रक्षक, द्वारक, दिण्डी तथा लेखक --ये

भी रथके साथ-साथ चकते । इतनी सतर्कता और कुदालतासे

रथकों ले जाया जाय कि रथका कोई अङ्ग - भङ्ग न हो । रथका

ईषादण्ड टूटनेपर ब्राह्मणको, अक्ष टूटनेपर क्षत्रियको, तुला

टूटनेपर वैर्योको, शब्याके टूटनेपर शूद्रौको धय होता है ।

युगके भङ्गे अनावृष्टि. पीटके भङ्गसे प्रजाको भय, रथका

चक्र टूटनेसे त्रुसेनाका आगमन, ध्वजाके गिरनेसे राज-भङ्ग

तथा प्रतिमा खष्डित होनेसे राजाकी मृत्यु होती दै । छत्रके

टूटनेपर युवराजकी मृत्यु होती है । इनमेंसे किसी भी प्रकारका

उत्पात होनेपर उसकी शान्ति अवद्य करानी चाहिये तथा

ब्राह्मणको भोजन और दान देना चाहिये एवं विधिपूर्वक

गह-जशान्ति करानी चाहिये। रथके ईशानकोणमें वेदौ अथवा

कुण्ड बनाकर घृत और समिघाओंसे देवता तथा ग्रहोंकी

प्रसन्नताके ल्व्यि हवन करना चाहिये और इन नाम-मजरोंसे

आहूति देनी चाहिये--' ॐ अभ्रये स्वाहा, ॐ सोमाय स्वाहा,

ॐ> प्रजापतये स्वाहा ।" इत्यादि । अनन्तर दान्ति एवं

कल्याणके लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये--

स्वस्त्यस्त्विह च विप्रेध्यः स्वस्ति राज्ञे तथैव च ।

गोभ्यः स्वस्ति प्रजाभ्यश्च जगतः दान्तिरस्तु चै ॥

षौ नोऽस्तु दिपदे नित्ये झञान्तिरस्तु चतुष्पदे ।

षौ प्रजाभ्यस्तयैवास्तु क सदात्यनि चास्तु यै ॥।

भू: शान्तिरस्तु देवे भुवः शान्तिस्तदैव च ।

स्वश्चैवास्तु तथा शान्तिः सर्वप्रास्तु तथा रतेः ॥

स्वै देव जगतः खटा पोष्टा चैय त्वमेव हि ।

प्रजापारू ग्रहेदान शान्तिं कुरु दिवस्पते ॥

(ब्राह्मपर्व ५६। १६-- १९)

अपनी जन्परादिसे दुष्ट स्थानपे स्थित ग्रहोंकी प्रसन्नता

तथा ज्ञाक्तिके लिये प्रह-समिधाओंसे हवन करना चाहिये। ये

समिधाएँ प्रादेशमात्र लंबी होनी चाहिये। सूर्यके लिये अर्ककी,

चन्द्रमाके लिये पत्चश्की, मङ्गलके लिये खदिरकी, बुधके

लिये अपामार्गकी, बृहस्पतिके लिये पीपलकी, शुक्रके लिये

गूलरकी, दानिके छिये शामीकी, राहुके लिये दुर्वाकी और

केतुके ल्थ्ये कुज्ाकी समिधा ही हवनके लिये प्रयोग करना

चाहिये । उत्तम गौ, शङ्ख, लल बैल, सुवर्ण, बस्तर युगल, श्वेत

अध, काली गौ, लौहपात्र और छाग--ये क्रमशः नौ ग्रहोंको

दक्षिणा हैं। गुड़ और भात. घी-मिश्रित खीर, हविष्यात्र,

क्षीरात्र, दही-भात, घृत, तिल और उड़दके बने पान्न,

गृदोकाल् फल, चित्रवर्णका भात एवं काँजी--ये करदाः

नवप्रहोंके भोजन हैं। जैसे दारीरमे कवच पहन लेनेसे याण

नहीं लगते, वैसे ही ग्रहोंकी शान्त्रि करनेसे किसी प्रकारका

उपधात नहीं होता ¦ अहिसक, जितेद्दिय, नियमे स्थित और

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