काण्ड-३ सुक्त- २४ २७
मे स्वापित करते ह । आपका वह गं दस महीने तक गर्भाशय में रहकर वीर पुत्र के रूप में उत्पन्न हो ॥२ ॥
५३०. पुमांस॑ पुत्रं जनय तं पुमाननु जायताम् ।
भवासि पुत्राणां माता जातानां जनयाश्च यान् ॥३ ॥
है ख्री ! आप पुरुष लक्षणों से युक्त पुत्र पैदा करें और उसके पीछे भी पुत्र ही पैटा हो । जिन पुत्रों को आपने
उत्पन्न किया है तथा जिनको इसके बाद उत्पन्न करेंगी, उन सभी पुत्रों को आप माता हों ॥३ ॥
५३९१. यानि भद्राणि बीजान्यूषभा जनयन्ति च । तैस्त्वं पुत्रं विन्दस्व सा प्रसूधेनुका भव ।
हे स्मी।जिन अपोघ वीयोँ के द्वारा वृषभ गौ ओं में गर्भ की स्थापना कर बढड़े उत्पन्न करते है वैसे ही अमोघ
वीयां के द्वारा आप पुत्र प्राप्त करें ।इस प्रकार आप गौ के सदृश पुत्रो को उत्पन्न करती हुई, अभिवृद्धि को प्राप्त हो|
५३२. कृणोपि ते प्राजौपत्यमा योनि गर्भ एतु ते ।
` विन्दस्व त्वं पत्रं नारि यस्तुभ्यं शमसच्छमु तस्मै त्वं भव ॥५ ॥
{ह ख्री हम आपके निमित्त प्रजापति द्वारा निर्धारित संस्कार करते है । इसके द्वारा आपके गर्भाशय में गर्भ
की स्थापना हो । आप ऐसा पुत्र प्राप्त करें, जो आपको सुख प्रदान करे तथा जिसको आप सुख प्रदान करें ॥५ ॥
५३३. वासां झौष्पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव ।
तास्त्वा पुत्रविद्याय दैवीः प्रावन्त्वोषधयः ॥६ ॥
जिन ओषधियो के पिता द्युलोक हैं और माता पृथ्वी है तथा जिनकी वृद्धि का पूल कारण समुद्र (जल) है, वे
दिव्य ओषधिय पुत्र लाभ के लिए आपकी विशेष रूप से रक्षा करें ॥६ ॥
[ २४- समृद्धिप्राप्ति सूक्त ]
[ ऋषि - भृगु । देवता - वनस्पति अधवा प्रजापति । छन्द - अनष्ट, २ निचृत् पथ्यापंक्ति ।
५३४. पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं वचः ।
अथो पयस्वतीनामा भरेऽहं सहस्रशः ॥९ ॥
समस्त ओषधियों (धान्य) रस (सारतत्त्व) से परिपूर्ण हों । मेरे वचन (मंत्रादि) भी (मधुर) रस से समन्वित
तथा सभी के लिए प्रहणीय हों । उन सारयुक्त ओषधियों (धान्यो) को मैं हजाएं प्रकार से प्राप्त करूँ ॥ ६ ॥
५३५. वेदाहं पयस्वन्तं चकार धान्यं बहू ।
सम्भृत्वा नाम यो देवस्तं वयं हवामहे यो यो अयज्वनो गृहे ॥२ ॥
ओषधयो में रस (जीवन सत्व) की स्थापना करने वाले उन देवताओं को हम भली- भाँति जानते हैं, वे धान्यादि
को बढ़ाने वाले है । जो अयाज्जिक (कृपण) मनुष्यों के गृहों में है, उन 'संभृत्वा, (इस नाम वाले अथवा विखरे धन
का संचय करने वाले) देवों को हम आवाहित करते है ॥२ ॥
५३६. इमा या: पञ्च प्रदिशो मानवीः पञ्च कृष्टयः ।
वृष्टे शापं नदीरिवेह स्फातिं समावहान् ॥३ ॥
पूर्व आदि पाचों दिशाए तथा मन से उत्पन्न होने वाले पाँच प्रकार के (वर्णो के) मनुष्य इस स्थान को
उसी प्रकार समृद्ध करें, जिस प्रकार वर्षा के जल से उफनती हुई नदियां जल को एक स्थान से दूसरे स्यान तक
पहुँचा देती हैं ॥३ ॥