काष्ड-१२ सूक्त- ४ सेध
३५१८. या वशा उद्कल्पयन् देवा यज्ञादुदेत्य ।
, तासां विलिष्त्यं भीमामुदाकुरुत नारदः ॥४१ ॥
जिस समय वशा को देवों ने यज्ञ से बनाया (संकल्पित किया), उसी समय अधिक धृतवती और विशालकाय
वशा को नारद ने अनुभव (स्वीकार) किया ॥४१ ॥
३५१९. तां देवा अमीमां सन्त वशेयाई पवशेति ।
तामन्रवीन्नारद एषा वशानां वशतमेति ॥४२ ॥
उस सम्बन्ध में देवों ने विचार विनिमय किया कि यह गौ स्वामी के वश मे रहने योग्य नहीं है । तब नारद
ने वशा को शेष गौओं की अपेक्षा सहज नियखित रहने वाली कहा ॥४२ ॥
३५२०. कति नु वशा नारद यास्त्वं वेत्थ मनुष्यजाः ।
तास्त्वा पृच्छामि विद्वासं कस्या नाश्नीयादब्राह्मण: ॥४३ ॥
हे ऋषि नारद ।मनुष्यों के यहाँ उत्पन्न होने वाली ऐसी कितनी गौएँ हैं, जिनके सम्बंध में आपको ज्ञान है ?
आप विद्वान् पुरुष हैं, अत: हम आपसे पूछना चाहते हैं कि जो ब्राह्मण से भिन्न है, वह किसका सेवन न करे ? ॥४३ ॥
३५२१. विलिप्त्या बृहस्पते या च सूतवशा वशा ।
तस्या नाश्नीयादब्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥४४ ॥
(नारद का उत्तर) हे बृहस्पते ! ऐश्वर्य की कामना करने वाला वह व्यक्ति अब्राह्मण विलिप्ती (विशिष्ट प्रयोजनो
में लिप्त), सूतवशा (प्रेरक वशा) तथा वशा ( वशा के इन तीनों स्वरूपों ) का सेवन न करे ॥४४ ॥
[ अधर्व० १०.६०.३० में भी वशा के तीन रूप दिये हैं, उसे घुलोक, पृथ्वी तवा विष्णु-प्रजापति कला गया है । पृष्वी में
वला का विलिप्तील्ूप है, विष्णु-प्रजापति में प्रेरक सूतवशा है तथा लोक पे वशा (सर्ववशा) है। इन तीनों ही रूपों में यह
केवल ब्रह्निष्खों-परमार्थ परायणो के लिए ही फलित होती है ।] |
३५२२. नमस्ते अस्तु नारदानुष्टु विदुषे वशा । कतमासां भीमतमा यामदत्त्वा पराभवेत् ॥
हे ऋषि नारद ! आपके लिए वन्दन है । यह वशा (गाय) विद्वन् पुरुष की प्रार्थना के अनुकूल ही है, परन्तु
इन गौओं में कौन सी अतिभयंकर है, जिसे दानस्वरूप न देने पर पराभव होता है ॥४५ ॥
३५२३. विलिप्ती या बृहस्पतेऽथो सूतवशा वशा ।
तस्या नाश्नीयादद्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥४६ ॥
हे बृहस्पतिदेव ! जो ब्राह्मण से भिन्न हैं, वे यदि ऐश्वर्य समृद्धि की कामना करते है तो वे विलिप्ती, सूतवशा,
सर्ववशा, इन तीनों प्रकार कौ गौओं के सेवन से बचाव करे ॥४६ ॥
३५२४. त्रीणि वै वशाजातानि विलिप्ती सूतवशा वशा ।
ताः प्र यच्छेद् ब्रह्मभ्यः सो ऽनात्रस्कः प्रजापतौ ॥४७ ॥
विलिप्ती, सूतवशा ओर वशा ये गौओं की तीन श्रेणियाँ (प्रजातियाँ) हैं, इन्हें जो ब्राह्मणों को दानस्वरूप देते
हैं, वे प्रजापति के शोध से सुरक्षित रहते हैं ॥४७ ॥
३५२५. एतद् वो ब्राह्मणा हविरिति मन्वीत याचित: ।
वशां चेदेनं याचेयुर्या भीमाददुषो गृहे ॥४८ ॥